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नय
अध्यात्म नयो के भेद प्रभेद
१८ निश्चय
अभेद चित्रण
किया जा सकता है - सामान्य भाग व विशेष भाग या व भेद चित्रण । उस मे अभेद चित्रण का नाम निश्चय नय है और भेद चित्रण का नाम व्यवहार नय है । अर्थात वहा जिसका नाम शुद्ध द्रव्यार्थिक या सग्रह नय था उसी का नाम वहा निश्चय नय है और जिसका नाम अशुद्ध द्रव्यार्थिक या व्यवहार नय था उसी का नाम यहा व्यवहार नय है । इतना विशेष है कि स्थूल ऋजुसूत्र का विषय भी यहा व्यवहार नय मे गर्भित हो जाता है । अर्थात निश्चय नय तो द्रव्यार्थिक ही है परन्तु व्यवहार नय द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दोनो है, क्योकि इसमे द्वैत व एकत्व दोनों का ग्रहण करने मे आता है । दोनो के नामो मे ही अन्तर है, पर विषय व लक्षणो मे वस्तु भूत अन्तर नही है । हा उनके उत्तर भेदो के लक्षणो मे अवश्य अन्तर है ।
वहा शुद्धता और अशुद्धता का अर्थ था वस्तु की त्रिकाली एकता और उसकी त्रिकाली अनेकता । परन्तु यहाशुद्धता और अशुद्धता का अर्थ है शुद्धपर्याय व अशुद्ध पर्याय । वहा शुद्धता व अशुद्धता का सम्बन्ध ज्ञान की शुद्धता व अशुद्धता से था और यहा पर्यायो की शुद्धता व अशुद्धता से है । वहा अखण्ड ज्ञान को शुद्ध व खण्डित ज्ञान को अशुद्ध या निर्विकल्प ज्ञान को शुद्ध और विकल्पात्मक ज्ञान को अशुद्ध माना जाता था पर, यहा क्षायिक भाव रूप पर्याय को शुद्ध और औदयिक भाव रूप पर्याय को अशुद्ध माना जाता है । वहा ज्ञान की शुद्धता व अशुद्धता (अभेद व भेद) के कारण द्रव्यार्थिक नय के शुद्ध व अशुद्ध दो भेद किये थे और यहा पर्याय विशेषकी शुद्धता व अशुद्धता के कारण नय सामान्य के दो भेद किये गए है । आगम पद्धति मे कोई भी नय सत्यार्थ व असत्यार्थ नही था, क्योकि वे सब के सब वस्तु भूत थे । परन्तु यहा कोई नय सत्यार्थ है ओर कोई असत्यार्थ । वहां व्यवहार नय के द्वैत का आधार वस्तु के अपने अंग थे, पर यहा उसका आधार वस्तु के अंगो के अतिरिक्त पर सयोग भी है ।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है जीव मे चार प्रमुख भाव हैपारिणामिक, क्षायिक, क्षयोपशमिक, व औदारिकः । बस पृथक