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१७ पर्यायार्थिक नय
५८४ .५ - पर्यायार्थिक नय
समन्वय सत्ता का निषेध करने के कारण, कोरी कल्पना हो करते है, वस्तु को देख नही सकते । अत. उनका दोनो हो प्रकार का ग्रहण मिथ्या है। .
एक पर्याय का सम्बन्ध जिसे अन्य पर्यायो के साथ दिखाई नही देता, उसकी दृष्टि मे तो पर्याय विनशने पर वस्तु का हो समूल नाश हो गया, अब उसकी सत्ता ही लोक मे न रही। उपजने वाली वस्तु तो कोई और ही है जिसको सत्ता पहिले किसी रूप मे भी थी ही नही। ऐसी एकान्त मान्यता के कारण उसका सर्व ज्ञान व सर्व कथन मिथ्या है, क्योकि सर्वथा सत् का विनाश और असत् का उत्पाद पाया नही जाता । जैसे मनुष्य सामान्य से रहित युवा अवस्था मात्र का उत्पाद पाया नही जाता।
कार्य व्यवस्था मे भी इसी प्रकार सम्यक व मिथ्या ग्रहण होना सम्भव है। पाचों अगों का समन्वयात्मक एक अखण्ड रूप ग्रहण करने वाला कोई ज्ञानी तो उसके सम्बन्ध मे जो भी कहे सो सम्यक है। कार्य की निष्पत्ति मे पुरुषार्थ की सफलता कहे या कहे नियति की, स्वभाव की सफलता कहे या कहे निमित्त की, सव सम्यक् है। क्योकि भले ही उस समय की विचारण रूप उपयोग मे या कयन में एक की सफलता से अतिरिक्त अन्य अगो की सफलता स्थान न पा सके, पर उसके अभिप्राय मे उनका निषेध नही है. कारण कि उसके ज्ञान कोष मे पाचो बाते युगपत पडी है। दूसरी ओर अज्ञानी का वही कहना मिथ्या है, क्योकि पुरुषार्थ की सफलता मे वह नियति का कोई स्थान नही देखता और निर्यात की सफलता मे पुरुषार्थ को कुछ नही समझता। इसी