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________________ १७ पर्यायार्थिक नय ५४३ १. पर्यायार्थिक नय सामान्य का लक्षण मान मे जितना व जो कुछ भी वह है उतना मात्र ही सत् है । न वह भूत काल मे था ओर न भविष्यत मे रहेगा । इसी प्रकार अनेक भावो या गुणो का समूह भी द्रव्याथिक ही मान सकता है, पर पर्यायार्थिक नही । __और इस प्रकार दो द्रव्यो के बीच निमित्त नैमित्तक सम्बन्ध या जीव व शरीरादि के बीच कोई सश्लेप सम्बन्ध पर्यायार्थिक नय की दृप्टि मे सम्भव नहीं । अनेक परमाणु वन्ध कर स्कन्ध का निर्माण नही कर सकते । किसी भी द्रव्य में एक से अधिक प्रदेश की कल्पना व्यर्थ है । एक समय वर्ती शुद्ध द्रव्य मे आगे पीछे पर्यायो का प्रगट हो होकर विनष्ट होना असम्भव है, अत. एक द्रव्य मे अनेक पर्याय नही देखी जा सकती। पर्याय नही बल्कि द्रव्य ही क्षण भर के वाद विनष्ट हो जाता है। एक द्रव्य मे अनेक गुण या भावो का अवस्थान कल्पना मात्र है। पर्यायार्थिक नय पूर्णत. एकत्व ग्राही है । सत् मे द्वित्व देखना दृष्टि का भ्रम है, क्योंकि दो मिल कर तीन काल मे एक नही हो सकते । दो है तो दो ही रहेगे। और यदि ऐसा ही है तो द्वित्व मे एक सत्ता कैसे देखी जा सकती है ? भले ही स्थूल दृष्टि में अनेक द्रव्यो वा अनेक प्रदेशो का संयोग अनेक पर्यायो की अटूट श्रखला और अनेक भाव परस्पर मे मिलकर अखण्ड व एक प्रतीत होते हो, पर वास्तव में तो उन सवकी सत्ता पृथक पृथक है, अन्यथा उनमे अनेकता देखी जानी असम्भव थी। यह पर्यायार्थिक नय का सामान्य परिचय है, जिसका विस्तार ऋजस्त्र नय के अन्तर्गत किया गया है। इसी का विशद स्पष्टीकरण करने के लिये निम्न में इसके अनेको पृथक पृथक लक्षण किये गये है। १. लक्षण न०१ - निर्विशेष किसी एक विशेष चतुष्टय की ही सत् स्वीकार करके सामान्य चतुष्ट की सत्ता से इन्कार करना
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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