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१७. पर्यायार्थिक नय
2. पांगानिय
मामान्य कालाण मे उस ही को अधिक विशेषता के साथ कहना दट है । मल भत लक्षण की अपेक्षा ऋजुसूत्र नय व पर्यायार्मिक नय में कोई अन्नर नहीं है । जिस प्रकार सामान्य चतुष्टय स्वरूप सामान्य द्रव्य को मना को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिक नय हे, उसी प्रकार विशेष चतुष्टय स्वरूप विशेष दव्य की स्वतत्र सत्ता को स्वीकार करने वाला पर्यायार्थिक नय है । जिस प्रकार द्रव्यार्थिक नय में विशेष चतुष्टय की बतत्र सत्ता अवस्तु है, उसी प्रकार पर्यायायिक सत में सामान्य चतुष्टय की स्वतत्र सत्ता अवस्तु हे, सामान्य व विशंप चतुष्टय का कथन पहिले अधिकार न. ६ के प्रकरण न . ३ व नार में किया गया है, वहा से जान लेना।
द्रव्य क्षेज्ञ काल व भाव ये वस्तु के स्व चतुष्ट कहलाते है । इन चारो का व्यापक रूप सामान्य कहलाता है और व्याप्य हा विशेष कहलाता है। जैसे द्रव्य को अपेक्षा सर्व द्रव्यमयी, दौत्र की अपेक्षा सर्व व्यापी, काल की अपेक्षा त्रिकाली स्थायी आर भाव की अपेक्षा सर्व भाव स्वरूप एक अद्वैत सत् सामान्य है, वही द्रव्यार्थिक नय का विषय है। और द्रव्य की अपेक्षा एक व्यक्ति, क्षेत्र की अपेक्षा एक प्रदेशी, काल की अपेक्षा केवल वर्तमान एक समय स्थायी और भाव की अपेक्षा स्वलक्षण भूत किसी एक अविभागी भाव स्वरूप, एसे पृथक पृथक अनन्त सत विशेप है, वही पर्यायार्थिक नय का विषय है।
पर्यायाथिक नय द्रव्य मे या क्षेत्र मे या काल मे या भाव मे किसी भी प्रकार का भेद करना सहन नहीं करता । एक द्रव्य किसी दूसरे द्रव्यके साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध स्वीकारना द्रव्यार्थिक का काम है पर्यायार्थिक का नही । इसी प्रकार एक प्रदेश के साथ अन्य किसी प्रदेश का स्पर्श भी द्र यार्थिक स्वीकार कर सकता है, पर पर्यायार्थिक नही । पूर्वत्तर पर्यायो मे किसी प्रकार का सम्बन्ध मानना भी द्रव्यार्थिक का ही काम है, पर्यायार्थिक का नही। उसकी दृष्टि मे तो वर्त