________________
१६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५३६ १८ द्रव्यार्थिक के भेद
प्रभेदो का समन्वय विचारना तो यह है कि वस्तु के अस्तित्व का क्या विनाश या उत्पाद हो सका है ? उसका अस्तित्व तो पहिले भी था और अब भी है। बस इस प्रकार की दृष्टि का नाम ही उत्पाद व्यय निरपेक्ष ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि है।
८ प्रश्न:--अशुद्ध पर्यायो मे वर्तमान द्रव्य को भी परमभाव ग्राहक
नय शद्ध कैसे देख सकता है ?
उत्तरः--जैसे कर्दम मिश्रित जल को, जल पने की अपेक्षा देखने
पर स्वच्छ जल ही प्रतीति में आता है, या ताम्र मिश्रित अश द्ध स्वर्ण को स्वर्ण के मूल्य की अपेक्षा देखने पर सर्राफ को श द्ध स्वर्ण ही दिखाई देता है, कर्दम या ताम्र नही, उसी प्रकार अशुद्ध भी द्रव्य को उसके त्रिकाली स्वभाव या पारिणामिक भाव की अपेक्षा देखने पर वह सदा एक रूप शुद्ध ही प्रतीति में आता है, अशुद्ध नही ।
६ प्रश्नः--आगम मे गणो को अन्वय तथा पर्यायो को व्यतिरेकी
बताया गया है, फिर अन्वय द्रव्यार्थिक द्वारा पर्यायो का ग्रहण कैसे किया जा सकता है ?
उत्तर. यहा अन्वय का अर्थ गुण नहीं है, बल्कि अनुगत व अनु
स्यूत रूपेणसामान्य भाव है। वस्तु का अखण्ड एक स्वभाव उसके सर्व अगो मे चाहे व गुण हो या पर्याय अनुस्यूत रूपेणा व्याप्त रहता है, जैसे कि जीव का चिद्स्वभाव उसके ज्ञान चारित्र आदि सर्व गुणो तथा रागादिक सर्व पर्यायो में व्याप्त है यदि ऐसा न हो तो ज्ञान मात्र ही चेतन गुण हो, उसकी पर्याये अर्थात मति ज्ञान आदिक अचेतन हो जाये, या चारित्र आदि अन्य गुण व उनकी पर्याये अचेतन हो जाये । परन्तु ऐसा