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१६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५३८ १८ द्रव्यार्थिक के भेद
प्रभेदो का समन्वय दोनो को युगपत निर्विकल्प रूप से ग्रहण करता है । अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय मे गौण मुख्य व्यवस्था होती है, अत वह विशेष को गौण करके सामान्य को ही मुख्यत. जानता है । यद्यपि विशेषो का भी ग्रहण करता है, परन्तु ग्रहण करने के लिये नहीं, बल्कि सामान्य का परिचय पा लेने पर उनका त्याग कर देने के लिये ।
___ अथवा प्रमाण मे सामान्य व विशेष एक रस स्प देखे जाते है और अशुद्ध द्रव्यार्थिक मे उसे सामान्य से पृथक कल्पित करके अर्थात अभेद मे भेद डालकर, उन भेदो वाला उस सामान्य को कहा जाता है । विशेषो वाला बताने पर भी दृष्टि सामान्य की ओर हो झुकी हुई है विशेष की ओर नही, जैसे पगडी वाला कहने पर दृष्टि उस व्यक्ति को ही पकड़ती है, पगड़ी को नहीं ।
७ प्रश्न --सत्ता ग्राहक शुद्ध नय को उत्पाद व्यय रहित कसे कहा
जा सकता है जबकि उत्पाद व्यय से रहित कोई वस्तु ही नही है ?
उत्तर-यह तो दृष्टि की विचित्रता है । वस्तु के दो रूप है एक
बाह्य व दूसरा अन्तरग । उसका बाह्य रूप तो पर्यायो से चित्रित है, अत वह तो परिवतन शील दिखता है, परन्तु अन्तरग रूप सामान्य स्वभाव रूप है । स्वभाव त्रिकाली होता है । जैसे कुण्डल कड़े आदि का उत्पाद व व्यय होते हुए भी केवल स्वणे की इच्छा करने वाले को न कडा दिखाई देता है न कुण्डल । वह तो पहिले भी स्वर्ण ही दखता था अब भी स्वर्ण ही देखता है । उसी प्रकार सत् के बाह्य रूप का भले उत्पाद हो कि व्यय,