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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५३७
१८. द्रव्यार्थिक के भेद
प्रभेदो का समन्वय है । ऐसा ही अनेकान्त वस्तु की महिमा है । उसे पढाने को अनेकान्त सिद्धान्त ही समर्थ है इस प्रकार का ज्ञान वस्तु के अनुरूप ही है, अतः इस प्रकार से भेदो की सापेक्ष स्वीकृति मिथ्या नही सम्यक है।
५ प्रश्न--फिर अभेद पर ही जोर क्यो दिया जा रहा है, उसे ही
___शुद्ध क्यो बताया जाता है ?
उत्तर--क्योकि वस्तु मे तो वास्तव में वे उपरोक्त रीति से एक
रस रूप ही है, पृथक पृथक नही । समझने और समझाने के लिये भेद डालना तो वस्तु की महिमा पर कलक लगाना है, क्योकि वस्तु ऐसी है ही नही । पृथक पृथक उन गुण और पर्यायों की स्वतत्र सत्ता ही इस लोक मे नहीं है । अतः इस प्रकार का भेद-ज्ञान वस्तु के ठीक ठीक अनुरूप नही है । इसीलिये भेदो के द्वारा जानने का क्रम केवल अभ्यास करने तथा वस्तु की विशेषताओं से परिचय प्राप्त करने को ही है, वस्तु को वैसी पृथक पृथक भेदों वाली समझने के लिये नही। यही कारण है कि भेदो को अशुद्ध बताकर उनका निषेध किया गया है।
६. प्रश्न:--अशुद्ध द्रव्यार्थिक भी विशेषों से विशिष्ट सामान्य को
जानता है और प्रमाण ज्ञान भी, फिर इन दोनो मे क्या
अन्तर है ? उत्तरः-यद्यपि साधारण दृष्टि से तो ऐसा ही प्रतीत होता है
मानो इन दोनो मे कुछ अन्तर न हो, परन्तु वास्तव मे इन दोनों मे महान अन्तर है। प्रमाण ज्ञान में गौण मुख्य व्यवस्था नही होती, अतः वह सामान्य व विशेष