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________________ - १६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५३६ १८. द्रव्यायिक के भद प्रभेदो का समन्वय प्रकार से शब्दो में जिस जाति का भेद साधारण दृष्टि मे दिखाई देता है, उस प्रकार भेद वाली वस्तु सर्वथा नही है, ऐसा अभिप्राय रखकर ही वहा भेद का निषेध किया था। यदि इस बात का निपेध न करें तो शब्द सुनने वाले या पढने वाले को उपरोक्त प्रकार का भ्रम हुए बिना नहीं रह सकता, और यदि ऐसा हो जाये तो उसका ज्ञान वस्तु के अनुरूप कैसे कहा जा सकता है। तब तो वह मिथ्या ही होगा। पर इसका यह अर्थ भी नहीं कि भेद सर्वथा नही है । भेद अवश्य है, परन्तु उपरोक्त प्रकार का नहीं, बल्कि अग्नि में पडे उष्णता व प्रकाशकत्व रूप है। ये भेद वस्तु से कभी पृथक नही किये जा सकते है। ये पहिले पृथक पडे थे, फिर जोडे गये हो, ऐसा भी नही है । या वस्तु के एक कोने में एक भेद या अग रहता हो और दूसरे कोने मे दूसरा, ऐसा भी नहीं है। वे तो सारे के सारे अग या गुण पर्याय तो वस्तु के सर्वांग मे व्यापकर एक रस रूप रहते है । पृथक नही किये जा सकते, पर इनका पृथक पृथक कार्य दृष्टि मे आता अवश्य है-जैसे ऊष्णता का काम पकाना और प्रकाश का काम पढाना । बस इन पृथक पृथक कामो को देखकर ही वस्तु मे पडी अनेक शक्तियो का सज्ञाकरण कर लिया गया है । द्रव्य पहिले और गुण पीछे या गुण पहिले और द्रव्य पीछे ऐसा कुछ भेद नही है। और इस प्रकार भेद है भी और नही भी है। व्याप्य व्यापक पने की या क्षेत्र की अपेक्षा अभेद है, पर अपने अपने स्वरूप अस्तित्व या भाव की अपेक्षा भेद
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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