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१६. द्रव्यार्थिक नय सायान्य ५३४ १८. द्रव्यार्थिक के भेद
- प्रभेदो का समन्वय ३. प्रश्न-अभेद मे भेद हो ही नहीं सकता, फिर स्पष्टता दर्शाने
के लिये भी भेद कैसे किया जा सकता है ?
उत्तर -यह बात ठीक है, कि सामान्य तत्व अभेद है, परन्तु
सर्वथा अभेद हो ऐसा नही है । यदि ऐसा हुआ होता तो जीरे के पानी के अभेद स्वाद मे से नमक व मिर्च आदि की पृथक पृथक हीनाधिकता का विवेक उत्पन्न करना असम्भव हो जाता । यदि कहो कि यह दृष्टान्त तो यहां लागू नहीं होता, क्योकि इसमे तो यथार्थत ही नमक मिर्च आदि की पृथकता है, तब दूसरा दृष्टान्त अग्नि का लीजिये ।
अग्नि आपके रसोई घर में भी काम आती है, और आपके कमरे मे जलने वाले दीपक मे भी । रसोईघर में बैठकर पढने का विकल्प आपको कभी नहीं होता, क्या प्रकाश नही है ? और कमरे मे बैठकर दीपक पर हाथ सैकने का विचार नहीं आता, क्या दीपक की अग्नि मे उष्णता नही है ? रसोई घर में खाना पकाने का ही विकल्प क्यो होता है ? यदि अग्नि के प्रकशपने व ऊष्णपने मे सर्वथा भेद न हुआ होता तो उनमे भिन्न भिन्न स्थलों पर भिन्न भिन्न जाति के काम लिये जाने सम्भव नही थे।
दूसरी प्रकार से भी अग्नि की उष्णता को तो आप शरीर के द्वारा जान पाते है और प्रकाश को नेत्र द्वारा । यदि इन दोनो मे सर्वथा भेद न हुआ होता तो आखे मीच लेने पर भी केवल शरीर से ही उष्णता व प्रकाश दोनो का ग्रहण हो गया होता और इसी प्रकार दूर बैठकर अग्नि को देखने मात्र से आख तपने लग गई होती।