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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य
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१७. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय
जो कुछ भी जड़ व चेतन पदार्थो का यह पसारा लोक मे दृष्ट हो रहा है, यह सर्व ही अनेक द्रव्यों के परस्पर बन्ध का फल है । कोई भी पदार्थ अन्य पदार्थो के सयोग से रहित अत्यन्त शुद्ध देखने मे नही आता है । सव ही जीव शरीर धारी है वे मनुष्य हो या तिय च सर्व ही जीव रागी द्वेषी है, वे मनुष्य हो या तिर्य च । इसी प्रकार सब ही स्थूल जड़ पदार्थ अनेक परमाणुओं के सघात स्वरूप है । इन सयोगो से पृथक कोई भी शुद्ध जीव या शुद्ध परमाणु देखने मे नही आता। अत सिद्ध होता है कि इन सव संयोगो को धारण किये रहना ही वस्तु का स्वभाव है।
और जब उनका स्वभाव ही ऐसा है, तब उसे सयोगी भी क्यो समझा जाये । सयोगो से रहित कोई असंयुक्त पदार्थ दिखाई दे तो उसके मुकाबले मे इसे सयोगी कह सकते है । परन्तु जिस दृष्टि मे असंयुक्त पदार्थ की सत्ता ही नही उस दृष्टि मे इसे सयोगी भी कसे कह सकते है ? वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है, कोई इसमे क्या करे । जीव का स्वरूप ही शरीर धारी व रागी द्वेषी है, तथा पुद्गल का स्वरूप ही इन टूटने फूटने वाले स्थूल पदार्थो स्वरूप है ।
इस प्रकार की दृष्टि से देखने पर, सर्व ही जीव तथा सर्व ही पुद्गल अशुद्ध ही दिखाई देते है । बस यही कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय का विषय है । अर्थात सर्व ही जीवो को शरीर व कर्मो के बन्ध से युक्त ससारी रूप वाला या औदयिक भाव स्वरूप देखना इस नय का लक्षण है । इसी प्रकार सर्व ही पुद्गल पदार्थो को परस्पर सघात को प्राप्त स्थूल स्कन्धो रूप देखना भी इस नय का लक्षण है । जीव व पुद्गल दोनो पदार्थों में क्योकि जीव अधिक पूज्य है, इसलिये आगम मे इस नय युगल के लक्षण जीव मुखेन दिये गये है । तहा अनुक्त भी पुद्गल मुखेन उसका लक्षण उपरोक्त प्रकार समझ लेना ।
अब इस लक्षण की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये । ...