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१६. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक न
१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५२८
चतुष्टय की बद्ध अवस्थाओ मे स्थित पदार्थों का परिचय पाना भी आवश्यक है।
जैसा कि पहिले बताया जा चुका है, वस्तु मे शुद्धता व अशुद्धता दो प्रकार से देखी जा सकती है -- एक तो वस्तु मे गुण पर्याय आदि विकल्प कृत अभेद व भेद रूप से, और दूसरी उपरोक्त वन्ध के सद्भाव य अभाव कृत विभाग व स्वभाव के रूप से । इनमे पहिले प्रकार की शुद्धता व अशुद्धता का पर्याप्त विचार चार नय युगलो द्वारा किया जा चुका है । अव दूसरे प्रकार की बद्ध द्रव्य की शुद्धता व अशुद्धता का विचार करना इस पाचवे नय युगल का काम है । क्योकि इस प्रकार का बन्ध केवल जीव व पुद्गल इन दो द्रव्यो मे ही सम्भव है, इसलिये इस नय युगल का व्यापार भी सर्व द्रव्यो मे न होकर इन दो द्रव्यों की विशेषताओ को देखने में ही होता है ।
जीव द्रव्य वन्ध की अपेक्षा दो भेदो मे विभाजित है— ससारी व मुक्त । शरीर व कर्म सयुक्त जीव ससारी है और उनसे वियुक्त मुक्त है बद्ध होने के कारण ससारी जीव अशुद्ध कहलाता है और बन्ध शून्य होने के कारण मुक्त जीव शुद्ध कहलाता है । ससारी जीव के द्रव्य क्षेत्र काल व भात्र चारो ही अशुद्ध है, और मुक्त जीव के चारो ही भाव शुद्ध है तहा मुक्त जीव की शुद्धता को देखना इस प्रकृत कर्मोपाधि निरपेक्ष नय का काम है, और ससारी जीव की 'अशुद्धता को देखना इस के सहवर्ती कर्मोपाधि सापेक्ष नय का काम है । अशुद्धता का अर्थ यहा औदयिक भाव है, और इसी प्रकार शुद्धता का अर्थ भी पारिणामिक भाव नही है बल्कि क्षायिक भाव है । क्योकि पट सयोग व वियोग की अपेक्षा इन दोनो ही भावो में है, पारिणामिक भाव मे नही ।
भले ही ससारी जीव औदयिक भाव मे स्थित व अशुद्ध हो परन्तु उसे दृष्टि विशेष के द्वारा मुक्त जीव के क्षायिक भाव
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