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१६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य
४ वृ. न च ।११६ "प खलु जीवस्वभावो नो जनितो नो क्षयेण संभूतः । कर्मणां सजीवो भणितः इह परम भावे न । ११६।’
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१४. परम भाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय
अर्थ:-- जीव का जो स्वभाव न कर्मो से उत्पन्न होता है और न कर्मों के क्षय से, वही जीव है, ऐसा परमभाव ग्राही नय कहता है ।
न. दी । ३।८४।१२८ ।
“परमद्रव्यार्थिक नयाभिप्रायविषयः परमद्रव्य सत्ता तदपेक्षया 'एकभेवाद्वितीय ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन' सद्रूपेण चेतनानामचेतनाना च भेदाभावात् । "
अर्थ - परम द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय का विषय परम द्रव्य सत्ता महा सामान्य है । उसकी अपेक्षा से “एक ही अद्वितीय ब्रह्म है, यहा नाना - अनेक कुछ नही है" इस प्रकार का प्रतिपादन किया जाता है, क्योकि सद्रूप से चेतन और अचेतन पदार्थो मे भेद नही है ।
६ वृ.द्र. स ।५७ २३६ "यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप शुद्ध पारिणामिक परम भावलक्षण परमनिश्चयमोक्षः सच पूर्व मेव जीवे तिष्ठतीदानी भविष्यतीत्येवं न । "
अर्थ -- शुद्ध द्रव्य की शक्तिरूप शुद्ध पारिणामिक परमभावरूप परम निश्चय मोक्ष है वह तो जीव मे पहिले ही विधमान है । वह परम निश्चय मोक्ष अब प्रगट होगी ऐसा नही है ।
७ स. सा. ।ता. वृ । ३२० “सर्वविशुद्धपारिणामिक परम भाव ग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्वभोक्तृत्व-बध-मोक्षादिकारण परिणामशून्यो जीव इति सूचितं ।"