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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५२०
१४. परम भाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय
अव इसी की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये ।
१ वृ. न. च।११९। “गृहणाति द्रव्यस्वभाव अशुद्ध शुद्धोपचार परित्यक्तम् । स परमभाव ग्राही ज्ञान्तय सिद्धि कामेन । ११९|
अर्थ -- अशुद्ध व शुद्ध पने के उपचार से रहित जो केवल द्रव्य के स्वभाव को ग्रहण करता है, सिद्धि की इच्छा रखने वाले मुमुक्षुओं को उसे ही परम भाव ग्राही नय जानना चाहिये।
२ आ. प।७।पृ ७२। “परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक को. यथा ज्ञानस्वरूपात्मा । अन्नानेकस्वभावानामध्ये ज्ञानाख्यः परमस्वभावो गृहीतः । "
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परम भाव ग्राहक द्रव्यार्थिक नय ऐसा है जैसे कि आत्मा को ज्ञानस्वरूप कहना । यहा आत्मा के अनेक स्वभावो मे ज्ञान नाम का परम स्वभाव ही ग्रहण किया गया है । ३ आ. प ।१५। पृ १०८ “परमभावग्राहकेण भव्या भव्यपारिणामिक स्वभावः । .. कर्म नोकर्मणोरचेतनस्वभाव ।... कर्मनोकर्मणोम् र्त्तस्वभाव 1 पुल विहाय इतरेषाममूर्त्तस्वभावः । कालपुद् गलाणूनामेकप्रदेशस्वभा
वत्व |
अथः
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अर्थ - परमभाव ग्राहक नय से भव्य और अभव्य ये पारिणामिक स्वभाव है । कर्म व नोकर्म का अचेतन स्वभाव है । कर्म और नोकर्म का मूर्त स्वभाव है। पुद्गल को छोड़कर अन्य पदार्थों का अमूर्त स्वभाव है काल और पुद्ग - लाणुओं का एक प्रदेश स्वभावीपना है ।