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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य
५२२ . . .१५. अन्वय ग्राहक
अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय अर्थ- सर्व विशुद्ध पारिणामिक परमभावग्राही शुद्धोपादान
भूत द्रत्यार्थिक नय से जीव कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध तथा
मोक्षादि के कारण भूत पारिणामो से शून्य है ।। भले ही स्वर्ण का जेवर शुद्ध हो या अशुद्ध, परन्तु उसमे पाया जाने वाला स्वर्णत्व या स्वर्ण का सामान्य स्वभाव न शुद्ध है न अशुद्ध, न हल्का है न भारी । वह तो सव ही जेवरो मे एक का एक है । इस ही प्रकार सर्व ही द्रव्यो का स्वभाव त्रिकाली निरूपाधिक व शुद्ध ही रहता है । यह इसका उदाहरण है ।
परम अर्थात उत्कृष्ट जो पारिणामिक भाव उसको ग्रहण करने के कारण परम भाव ग्राहक है, उस भाव के त्रिकाल शुद्ध होने के कारण शुद्ध है, और उसके आश्रय पर सामान्य द्रव्य का परिचय देने के कारण द्रव्यार्थिक नय है। इस प्रकार 'परम भाव ग्राहक श द्ध द्रव्यार्थिक नय" ऐसा इसका नाम सार्थक है । यही इस नय का कारण
परिर्वतन पाने पर भी वस्तु जू की तूं ही स्वभाव में स्थित है । उसका कुछ भी बिगाड कि सुधार हुआ नही। परिवर्तन तो ऊपर ऊपर का कुछ नृत्य मात्र, वस्तु इससे बिल्कुल अती रहती है, ऐसी वस्तु की नित्य महिमा है । यह बताना ही इस नय का प्रयोजन है ।
अब इस चौये नय युगल के दूसरे भेद अन्वय ग्राहक नय का १५ अन्वय ग्राहक अशुद्ध कथन करना प्राप्त है । अन्वय का अर्थ
द्रव्यार्थिक नय. अनुगत रूप से रहना है । जिस प्रकार: माला मे डोरा सर्व ही मोतीयो मे अनुगत रूप से पिरोया रहता है, जिस के कारण उसका एक्य रूप वना रहता है और मोती विखरने नहीं पाते, जिस प्रकार क्रमवर्ती वालक व वृद्धदादि अनेक अवस्थाओ में उस मनुप्य का व्यक्तित्व अनुगताकार रूप से ओतप्रोत रहता हैं,