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१६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५०४
४. पर चतुष्टय ग्राहक
अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय प्रकाश सर्व परिचित है । परन्तु अपरिचित वस्तु को शब्दों.परसे समभते हुए ऐसा प्रायः हुआ ही करता है, कि इप्ट पदार्थ भी कल्पनाका विपय बन जाये। जैसे कि चैतन्य के अस्तित्व द्वारा आत्म पदार्थ को दर्शाते हुए यदि साथ साथ शरीर के सम्बन्धका निपेच न करे तो चैतन्यके साथ, अनुक्त भी इस गरीर का ग्रहण आत्मा रूपसे हो जाना सम्भव है । ऐसी भूल कदाचित हो जाये तो आत्म पदार्थ जाना नहीं जा सकता । बस इसी भूल की सम्भावना को दूर करने के लिये यह आवश्यक है, कि किसी वस्तु का स्वरूप बताया जावे तो उससे अतिरिक्त अन्य वस्तुओ के चतुष्टय को साथ साथ निपेध भी कर दिया जाये।
अतः वस्तु के स्वरूप को दर्शाने के लिये कथन क्रम में दो बाते आती है---वस्तु के स्वचतुष्टय की स्वीकृति या विधि तथा उससे अतिरिक्त अन्य पदार्थो के चतुष्टय का निपेध । इन में से पहिली वात तो स्व चतुष्टय ग्राहक शुद्ध द्वव्यार्थिक नय का विषय है और दूसरी बात पर चतुष्टय ग्राहक शुद्ध द्रव्यर्थिक नय का विषय है । यही इस नय का लक्षण है ।
यहा एक बात और ध्यान में रखने योग्य है कि इस निपेध को वताने के लिये दो प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जा सकता है'वस्तु मे पर चतुष्टय की नास्ति है या अभाव है ऐसा कहना पहिला प्रयोग है, और ‘पर चतुष्टय की अपेक्षा वस्तु की ही नास्ति है या अभाव है' ऐसा कहना दूसरा प्रयोग है । वहां पहिला प्रयोग तो सर्व सम्मत है, परन्तु दूसरा प्रयोग कुछ भ्रमोत्पादक है, और आगम में मुख्यता से इसी प्रयोग को अपनाया गया है। तहां भ्रम मे पढ़ने की आवश्यकता नही, क्योकि दोनों ही प्रयोगों का अर्थ एक है । जैसे कि या तो यह कह दीजिये कि अन्धकार में प्रकाश नहीं है या यह कह दीजिये कि प्रकाश मे अन्धकार नही है। दोनों मे क्या अन्तर है,