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१६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५०५
६. पर चतुष्टय ग्राहक
अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय केवल भाषा का भेद है । अथवा इसी को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जहा प्रकाश होता है वहा अन्धकार की नास्ति या अभाव होता है । अथवा इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि प्रकाश की अपेक्षा अन्धकार की और अन्धकार की अपेक्षा प्रकाश की नास्ति है । इसका यह अर्थ न समझिये कि प्रकाश की या अन्धकार की नास्ति कह कर उनका सर्वथा अभाव बताया जा रहा है, बल्कि यही समझिये कि अन्धकार के द्रव्य क्षेत्र काल भाव से तन्मय प्रकाश नाम के पदार्थ का लोक मे अभाव है, परन्तु स्वद्रव्य क्षेत्र काल और भाव से तन्मय प्रकाश तो सत् ही है । जैसे कि “यहा सिह नहीं है" ऐसा कहने पर यह अर्थ नही निकलता कि यहा हिरण भी नही है । इसी बात को सैद्धान्तिक भाषा में इस प्रकार कहा जाता है कि स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु अस्ति या अस्तित्व स्वभाव वाली है, और पर चतुष्टय की अपेक्षा वही वस्तु नास्ति या नास्तित्व स्वभाव वाली है। पर चतुष्टय की अपेक्षा वस्तु मे नास्तित्व धर्म की स्थापना करना इस नय का लक्षण है।
अब इसी की पुष्टी व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देता है। १. बृ.न. च।१६८ “सद्व्यादिचतुष्के सद्रव्यं खलु गृहणाति यो हि ।
निजद्रव्यादिषु' ग्राही स इतरो भवति विपरीतः १९८।"
अर्थ-अस्तित्वभूत स्वद्रव्यादि चतुष्टयमे ही द्रव्य के अस्तित्वका
जो ग्रहण करता है वह स्वचतुष्टय ग्राहक है, और उससे विपरीत परचतुष्टय में द्रव्य के नास्तित्व का ग्रहण पर चतुष्टय ग्राहक है ।
२. व. न. च ।२५४. . . .। तदपि च नास्तिस्वभावं पर द्रव्या
भिग्राहकेण । २५४।"