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१६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५०३
६. पर चतुष्टय ग्राहक
अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय अत. इस नय का "स्वचतुष्टय ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक" ऐसा नाम सार्थक है।
स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इन चारो से समवेत बिल्कुल पृथक व स्वच्छ तथा निरुपाधि वस्तु को दर्शाना इस नय का प्रयोजन है । या यों कहिये कि वस्तु का प्रतिपादन करते हुए जिन दृष्टान्तों का आश्रय लेकर उसे बताया जाता है, उन पर से लक्ष्य को हटाकर दाष्टान्त पर लक्ष्य ले जाना इस नय का प्रयोजन है । दृष्टान्त में तेरा वैभव नही है, अतः भाई । वहा से हटकर निज शक्तियो व व्यक्तियो मे उसे खोजने का प्रयत्न कर, ऐसा उपदेश यह नय । देता है।
नय
वास्तवमे स्वचतुष्टय ग्राहक व पर चतुष्टय ग्राहक एक ही बातको ६ पर चतुष्टयग्राहक दर्शाते है, अतः ये एक ही हैं । परन्तु कथन अशुद्ध द्रव्यार्थिक पद्धतिके भेद के कारण इन दोनो को पृथक
पृथक नय स्वीकार किया गया है । इन दोनो मे केवल इतना अन्तर है, कि वह तो उसी वस्तु का स्वरूप बताता है उसका निज वैभव दर्शाकर, और यह उसी वस्तु का स्वरूप बताता है उसी पर पड़े हुए आवरण को हटाकर । बिल्कुल उस प्रकार जिस प्रकार कि प्रकाश का आस्तित्व कहो या कहो अन्धकार का अभाव, दोनों का एक ही तात्पर्य है । जो प्रकाशका अस्तित्व है वही अन्धकार का अभाव है । यद्यपि वस्तु रूपसे दोनो एक है, पर कथन क्रममे प्रकाश की निष्कलकता प्रगट करने के लिये अन्धकार का अभाव बताना आवश्यक है। यह न बतायें तो, कदाचित् उन व्यक्तियोको जिनको की प्रकाश का परिचय नही है, एक ही स्थान में प्रकाश व अन्धकार दोनों का ग्रहण हो जाना सम्भव है ।
यद्यपि यह बात कुछ असम्भवसी लगती है कि प्रकाश के साथ साथ अन्धकार का भी ग्रहण हो जाये, परन्तु इसका कारण यही है कि