________________
१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य
८. स्व चतुष्टय ग्राहक
शुद्ध द्रव्यार्थिक नय २. वृ. न. च।२५४ "अस्तिस्वभाव द्रव्यं सद्व्यादिषु ग्राहक
नयेन ।”
अर्थः-स्वद्र व्यादि चतुष्टय ग्राहक नय से द्रव्य अस्तित्व स्वभाव
वाला है।
३. आ प. ७७१ "स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्या
दिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति ।"
अर्थ --स्व द्रव्यादि चतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्थिक नय को ऐसा जानो
जैसे कि यह कहना कि स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु है ही।
इस नय का उदाहरण ऐसा समझना, जैसा कि आम नाम का पदार्थ जानते हुए, स्वत. ही उसका आकार या क्षेत्र, तथा उसकी कच्ची पक्की अवस्थाये या काल तथा उसका स्वाद विशेष या भाव जानने में आ जाते है । इन चारों से समवेत ही आम सत् है, इनसे पृथक नही । अथवा आत्मा नाम का पदार्थ जानने के लिये उसका त्रिकाली अस्तित्व, उसके अनेको सस्थान, उसकी आगे पीछे होने वाली मनुष्यादि पर्याय तथा उसके ज्ञानादि गुण, इन सब का ही ग्रहण होना कार्य कारी है, परन्तु उसके साथ मे रहने वाला जो शरीर उसके आकार या रूप रगादि का ग्रहण करना भ्रमोत्पादक है । क्योकि आत्मा का अस्तित्व अपने ही उपरोक्त चतुष्टय (मे है, शरीर के चतुष्टय मे नहीं।
क्योकि यह नय स्वचतुष्टय के आधार पर वस्तु के अस्तित्व को दर्शाता है, इसलिये स्व चतुष्टय ग्राहक है क्योकि स्वचतुष्टय ही वस्तु का निज वास्तविक स्वरूप है इसलिये इसे श द्ध कहा है, तथा क्योकि त्रिकाली सामान्य द्रव्य का परिचय देता है इसलिये द्रव्यार्थिक है ।