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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५०१
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में स्वतंत्रता से अवस्थित हैं । न कोई वस्तु अपने चतुष्टय का अंश मात्र भी किसी अन्य वस्तु को दे सकती है, और न कोई किसी से कुछ ले सकती है । एक पदार्थ अपना कुछ भी दूसरे को देने में समर्थ ही नही है । अतः वस्तु सर्वदा व सर्वत्र निज चतुष्टय स्वरूप ही रहती है, अन्य चतुष्टय स्वरूप नही होती । उदाहरणार्थं 'घट' नाम का पदार्थ तभी सत्स्वरूप समझा जाता है, जबकि वह अपने ही कम्बुग्रीवा आदि वाले संस्थान या क्षेत्र को धारण करता हो तथा अपनी ही घटन किया करने के स्वभाव से स्वय युक्त हो । ऐसा नही हो सकता कि उसका संस्थान तो 'पट' जैसा हो और उसका स्वभाव अग्नि जैसा हो । लोक में इस प्रकार का कोई पदार्थ ही उपलब्ध नही हो सकता ।
८.
स्व चतुष्टय ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय
अतः सिद्ध है कि वस्तु स्वयं अपने चतुष्टय स्वरूप ही होती है, अपने से अतिरिक्त अन्य किसी के भी चतुष्टय स्वरूप नही होती । यह जो उसका स्वचतुष्टय स्वरूप से अवस्थित रहनापना है वही इस प्रकृत स्वचतुष्टय ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है | स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु सत् है, या कह लीजिये कि अस्तित्व स्वभाव वाली है । इस प्रकार स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु में अस्तित्व धर्म की स्थापना करना इस नय का लक्षण है ।
अव इसी की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देता हूँ ।
१ वृ. न. च।१९८ " सद्द्रव्यादिचतुष्के सद्द्रव्य खलु गृहणाति योहि । निजद्रव्यादिषु ग्राही स इतरो भवत विपरीत. 18851"
अर्थ:-- अस्तित्व भूत द्रव्यादि चतुष्टय में ही द्रव्य के अस्तित्व का जो ग्रहण करता है वह स्वचतुष्टय ग्राहक है ।