________________
१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य
८. स्व चतुष्टय ग्राहक
शुद्ध द्रव्यार्थिक नय वस्तु का द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव उस का स्वचतुष्टय कहलाता ८ स्वचतुष्टय ग्राहक है । सर्व प्रथम यह देखना है कि वस्तु का यह
शुद्ध द्रव्याथिक नय चतुष्टय वस्तु का ही निज रूप है या किन्ही बाह्य सयोगो का फल है । इस बात का अव तक काफी खुलासा किया जा चुका है, कि वस्तु को भली भाति समझाने के लिये भले ही विश्लेषण के द्वारा उसे इन चारो अगों मे विभाजित कर दिया गया हो, परन्तु वास्तव मे यह विभाजन केवल काल्पनिक है, वस्तुभूत नही, क्योकि वस्तु से पृथक वे चारो कोई अपनी स्वतत्र सत्ता नही रखते । उनका एक रस रूप अखण्ड द्रव्य ही सत् है । अत यह चतुष्टय वस्तु का निज का ही रूप है, अन्य सयोगो का फल नही ।
___ अपने अपने गुण व पर्यायो का अधिष्ठान भूत वह द्रव्य ही स्वयं वस्तु या सत् है । अधिष्ठान होने के नाते उस का कोई न कोई आकार अवश्य होना ही चाहिये, क्योकि आकृति रहित कोई भी काल्पनिक तत्व वस्तभूत गुणो आदि का आश्रय नही हो सकता । उसका वह आकार या संस्थान ही उसका स्वक्षेत्र है । वस्तु वही है जो कि कुछ अर्थ क्रियाकारी हो । अर्थ क्रिया शून्य द्रव्य कपोल कल्पना मात्र है, जैसे आकाश पुष्प है । पदार्थ मे किसी भी प्रकार का परिवर्तन आय विना अर्थ क्रिया की सिद्धि असम्भव है, अतः वस्तु स्वभाव से ही परिवर्तन शील होनी चाहिये । प्रति क्षण अवस्था या पर्याय को वदल लेना ही द्रव्य का स्वकाल है। द्रव्य है तो उसका कोई न कोई विशेष स्वभाव अवश्य होना ही चाहिये, क्योकि परिणमनशील हो जाने पर भी यदि वह किसी विशेष स्वभाव से शन्य है, तो लोक मे उसकी क्रिया किमात्मक दिखाई देगी । यह स्वभाव विशेष ही उस द्रव्य का स्वभाव कहलाता है।
इस प्रकार जैसे एक वस्तु अपने चतुष्टय के साथ तन्मय है, वैसे ही दूसरी तीसरी अन्य अन्य सर्व वस्तुये भी अपने अपने चतुष्टयो