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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ४६२ ६ अशुद्ध द्रव्यार्थिक
नय अखण्ड सस्थान रूप कहता था, वहा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय उसे ही अनेक प्रदेशो वाला कहता है । काल की अपेक्षा करने पर जहा सुद्ध द्रव्यार्थिक नय, उसे पर्यायो के परिवर्तन से निरपेक्ष नित्य कहता था, वहा अशुद्ध द्रव्याथिक नय उसे ही भूत, वर्तमान व भविष्य की अनन्तो पर्यायो का एक अखण्ड पिण्ड बताता है। भाव की अपेक्षा करने पर जहा शुद्ध द्रव्याथिक उसे अनेक गुणों से निरपेक्ष केवल स्वलक्षण स्वरूप कहता था, वहा अशुद्ध द्रव्यार्थिक उसे ही अनेक गुणो का समूह कहता है । पारिणामिक भाव रूप स्वभाव की अपेक्षा करने पर जहा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उसे पर्याय कलक रहित नित्य शुद्ध बताता था, वहां अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय उसे ही अनेकों त्रिकाली पर्यायो मे अनुगत एक स्वभावी कहता है । पर पदार्थो के सयोग की अपेक्षा करने पर, जहा शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उसे पर सयोग से निरपेक्ष बताता है, वहा अशुद्ध द्रव्यार्थिक उसे ही पर पदार्थ के सयोग व वियोग आदि से सापेक्ष बताता है । तात्पर्य यह कि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय सर्वत्र व सर्व अपेक्षाओं से द्रव्य को अभेद देखता है, तथा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय उस अभेद मे ही भेद देखता है । यही विशेष सापेक्ष सामान्य कहने का प्रयोजन है।
यहा प्रश्न हो सकता है कि सामान्य स्वरूप होता ही अभेद है तो उसमे भेद डाला कैसे जाता है ? सो भाई! वह सर्वथा अभेद हो ऐसा नही है। उसके अनेकों पूर्वोत्तर चित्र विचित्र कार्यो या पर्यायो पर उस मे अनेक गणो का सद्भाव भी प्रत्यक्ष होता है। गुण व पर्यायो से रहित वस्तु कोई नही है। अत यह गण व गुणी अथवा पर्याय पर्यायी आदि का भेद भी कथञ्चित वस्तुभूत है । दृष्टि विशेप के द्वारा देखने पर वह प्रत्यक्ष है। बस उसी दृष्टि को अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहते है। इस नय का अन्तर्भाव शास्त्रीय नय सप्तक के व्यवहार नय मे होता है ।
यहा पर ग्रहण किये गये विशेष या भेद वास्तव मे उसी सामान्य द्रव्य को वक्तव्य वनाने तथा उसकी सिद्धि के लिये ही है,