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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ४६०
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शुध्द द्रव्यायिंक
नय
सकती है । पर भाई । शब्दों में तर्क करने की बजाये वस्तु मे जाकर देख, कि वह वहाँ है या नही । और यदि है तो स्वीकार करते हुए डर क्यों लगता है ? देखना तो इस बात का है कि ऊपर और भीतर के यह दो रूप क्या पृथक पृथक सागर के है या एक ही के । क्या कुछ ऐसी बात वहाँ है कि उसके यह बाहर व भीतर के दो अग स्वतंत्र रूप से पृथक पृथक पडे हो ? अर्थात सागर के मध्य कोई एक छत या शामियाना तना हुआ हो, जो उससे ऊपर ऊपर के पानी में तो कल्लोले रहे और उससे नीचे के मे नही वहा तो ऐसा कोई व्यवस्था है नही । जो पानी ऊपर है वही नीचे । ऊपर से हानी वृद्धि सहित है पर नीचे से नही । यह दोनो ही रूप एक ही अखण्ड सागर के है ।
बस इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ को समझिये । उसके वाह्य रूप मे उत्पाद व्यय, पर्याय, गुण, शुद्धता, अशुद्धता, हीनता, अधिका कुछ सत्य है, पर अन्तरंग रूप अर्थात् स्वभाव मे न उत्पाद हैन व्यय न गुण है न पर्याय न शुद्धता है न अशुद्धता, हीनता, न अधिकता, वह तो एक अखण्ड व निर्विकल्प भाव मात्र है, यह भी सत्य है । उसका बाह्य व अंतरंग रूप दो पृथक पृथक स्वतंत्र पदार्थ हो या इनके बीच मे कोई दीवार या पार्टीशन हो, ऐसा भी नही है । जो स्थिर है वही आस्थिर है । कहने मे भले बाह्य व अन्तरग ऐसे दो भेद आये हो, वास्तव मे वहा तो वस्तु एक व अखण्ड है वस्तु का स्वरूप ही जब ऐसा है तो इसमे हम क्या करेगे अतः भाई जैसा है वैसा स्वीकार
पर
कर |
वास्तव मे अखण्ड वस्तु के इन दो पड़खों को पृथक पृथक स्पष्ट दर्शाना ही द्रव्यार्थिक नय मे भेद डालने का प्रयोजन है । उसमे यहा शुद्ध द्रव्याथिक नय का प्रयोजन वस्तु का अन्तरग रूपया उसका स्वभाव दर्शाना है । जैसा कि आगे आयेगा, अशुद्ध द्रव्यार्थिक का
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