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१६. द्रवयार्थिक नय सामान्य ४८३
५ शुध्द द्रव्यार्थिक
नय २. प्र. सा । न प्र । पारि। नय न ४७ “शुद्धनयेन केवलमण्मात्र
वनिरुपाधिस्वभावम् ।”
अर्थः--आत्मा द्रव्य शुद्ध नय से, केवल मिट्टी मात्र की भाति
निरुपाधि स्वभाव वाला है ।
३ वृद्र स ।३।११ “शुद्धनिश्चयतः सकाशादुपादेयभूता शुद्धचेतना
__ यस्य स जीवः ।"
अर्थः--शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा उपादेयभूत यानी ग्रहण
करने योग्य शुद्ध चेतना जिसके हो सो जीव है ।
४ स सा ।पा।१६।क १८ "परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्यो
तिषैकक । सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक ।१८।"
अर्थः-शुद्ध निश्चय से प्रकट ज्ञायक ज्योतिमात्र आत्मा एक
स्वरूप है। क्योकि सभी अन्य भावों को दूर करने रूप उसका अपना स्वभाव अमेचक अर्यांत शुद्ध एकाकार है।
५ स सा ।मू ७ "ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसण
णाण । णावि णाणं ण चरित्त ण दसण जाणगो सुद्धो ७।”
अर्थः--ज्ञानी के चारिव दर्शन ज्ञान ये तीन भाव व्यवहार
द्वारा कहे जाते है । निश्चय नय से ज्ञान भी नही है, चरित्र भी नही है और दर्शन भी नहीं है ज्ञानी तो एक ज्ञायक ही है।