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१६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ४६८
२ द्रव्यार्थिक नय
सामान्य के लक्षण
निर्विकल्प वत् और वचन अगोचरवत् एक स्वानुभव
द्वारा ही गम्य है ।
२. प. ध. ।पू.।६४१, ७४७)
२ प ध. ।३०।१३४ “एक : शुद्ध नयः सर्वो निर्द्वन्दो निर्विकल्लपकः।“ ।१३४।”
अर्थ - - सम्पूर्ण शुद्ध नय एक अभेद और निर्विकल्प है ।
५. लक्षण नं० ५ (सकल भेदों के व्यवहार का निषेध करना)
१. रा० वा० । १ । ३३ ।१ ।६४।२५ " द्रव्यमस्तीति मितरस्य द्रव्य भवनमेव नातोऽन्ये भावविकाराः, नाप्यभाव तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिकः ।”
वृ न. च. ।२६२ “यः स्याद्भेदोपचार धर्माणा करोति एकवस्तुन' । स व्यवहारो भणित: विपरीतो निश्चयो भवति ॥ २६२ ॥ "
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अर्थ – जो एक वस्तु मे धर्मो की अपेक्षा भेद का उपचार करता है वह व्यवहार नय है । उससे विपरीत निश्चय नय होता है ।
३ प ध.।पू।५ε८,६४३ " व्यवहार प्रतिषेध्यस्तस्य प्रतिषेव्यकरच परमार्थः । व्यवहारप्रतिषेधः स एव निश्चयनयस्य वाच्य स्यात् ।५९८। इदमंत्र समाधान व्यवहारस्य च नयस्य यद्वाच्यम् । सर्वविकल्पाभावे तदेव निश्चयनयस्य भद्वाच्यम् ।६४३।”
अर्थ – व्यवहार नय प्रतिषेध्य है, तथा उसका प्रतिपेधक निश्चय नय है, अर्थात जो व्यवहार नय का निषेध है वह