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१५. शब्दादि तीन नय ४४२
१०. एवंभूत नय का
लक्षण अथवा 'एव' शब्द के द्वारा चेष्टा क्रियादिक का प्रकार बताया जाता है । उस क्रिया से विशिष्ट वस्तु का ज्ञान करने के कारण एवभूतपने को प्राप्त यह नय भी एवभूत है । इस प्रकार उपचार के बिना भी इसकी
एवभुत संज्ञा है। ३. लक्षण नं ३ (ज्ञान परिणति के आधार पर जीव की संज्ञा) -
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१ स सि ।१।३३।५४३ “अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूत.
परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति । यथेन्द्राग्निज्ञानपरिणत
आत्मैवेन्द्रोऽग्निश्चेति । अर्थ-अथवा जिस रूप से अर्थात जिस ज्ञान से आत्मा परि
णत हो उसी रूप से उसका निश्चय कराने वाला नय एवभूत नय है यथा-इन्द्ररूप ज्ञान से परिणत आत्मा इन्द्र
है और अग्नि रूप ज्ञान से परिणत आत्मा अग्नि है। (रा. वा ।१।३३।११।६६।१०)
४ लक्षण नं ४ (वर्णो का सम्मेलन होने से शब्द व वाक्य का भी अभाव है).
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१ ध ।पु १।पृ. ६०१३ एव भेद भवनादेवभूतः । न पदाना
समासोऽस्ति भिन्नकालवतिना भिन्नार्थवतिना चैकत्वविरोधात् । न परस्पर व्यपेक्षाप्यास्ति वर्णार्थसख्याकालादिभिभिन्नानॉ पदाना भिन्नपदायोगात् । ततोन वाक्यमत्यस्तीति सिद्धम् ।”
अर्थ –एवभेद अर्थात जिस शब्दका जो वाच्य है वह तद्रूप क्रिया
से परिणत समय में ही पाया जाता है। उसे जो विषय