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१५ शब्दादि तीन नय ४२८ ६. समभिरून नय के
कारण व प्रयोजन ५. प्रा. प. I प.० ८० "समभिरूढ नयो यथा गी पश ।"
अर्थ--समभिरूढ नय को ऐसा जानो जैसे गी एक पशु है, और
इस शब्द का अर्थ कुछ नहीं ।
एक ही शब्द के यदि अनेको अर्थ स्वीकार किये जायेगे तो गब्द ६ समभिरूढ नय के द्वारा श्रोता को निश्चित ही अर्थ का ज्ञान
के कारण व नहीं हो सकता, इस कारण एक शब्द के अनेको
प्रयोजन अर्थो को छोड़ कर एक प्रसिद्ध अर्थ मे ही प्रवृत्ति करना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा अर्थ के स्थान पर कदाचित,अनर्थ का ग्रहण हो जाना सम्भव है ।
___ दूसरे अनेक शब्दो का भी एक ही वाच्य स्वीकार करने पर वह दोष वना रहता है अत अनेक शब्दो का भी एक अर्थ नहीं होना चाहिये । जितने वाचक शब्द है उतने ही उनके वाच्य अवश्य होने चाहिये । भले ही भिन्न भिन्न गुणों की अपेक्षा से एक ही व्यक्ति के अनेक सार्थक नाम रखे जाने सम्भव हो, जैसे कि भगवान के १००८ अन्वर्थक नाम प्रसिद्ध है, पर उन सर्व शब्दो का व्युत्पत्ति अर्थ एक नही हो सकता है। यदि वाचक शब्दो को अभिन्न माना जायेगा तो वाच्य पदार्थ भी अभिन्न हो जायेगे और इस प्रकार एक पदार्थ के गुण की अन्य पदार्थ मे वृत्ति हो जायेगी । कहा भी है -
१ स सि ।१।३३ ॥५३६ 'यो यत्राधिरूढः सतत्र समेत्याभिमुख्येना
रोहणात्समभिरूढ यथा भवानास्ते ? अत्मनीति । कुत ? वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्ति स्यात्, ज्ञानादीना रूपादीना चाकाशे वृत्ति स्यात् ।"
अर्थ --अथवा जो जहा अधिरूढ' है वह वहा 'सम' अर्थात
होकर प्रमुखता से रूढ होने के कारण समभिरूढ नय