SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ शब्दादि तीन नय ( प्र० क० मा० पृ० २०६ ) २ रा० वा० ।१३३ १० १६८ १२६ ४२७ 'यतोनानार्थान्समतीत्येकमर्थभिमुख्येन रूढस्तत समभिरूढ । कुत ? वस्त्वतरासंक्रमेण तन्निष्ठत्वात् । कथम् ? अवितर्कध्यानवत् । यथा तृतीय शुक्ल सूक्ष्मक्रियमवितर्कमवीचारध्यानम् अर्थव्यञ्जनयोगसक्रान्त्यभावात् सूक्ष्मकाययोगनिष्ठत्वात् तथा गौरित्यय शब्दो वागादिषु वर्तमानो गव्यधिरूढ । एव शेपेप्वपि रूढिशब्दोऽस्य विषय ।" अर्थ --अनेक अर्थों को छोड़कर किसी एक अर्थ मे मुख्यता से रूढ होने को समभिरूढ नय कहते है । जैसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्ध्यान अर्थ व्यञ्जन और योग की सक्रान्ति न होने से, मात्र एक सूक्ष्म काययोग मे परिनिष्टित हो जाता है, उसी तरह 'गौ' शब्द वाणी पृथिवी आदि ग्यारह अर्थों में प्रयुक्त होने पर भी सब अर्थो को छोड़कर मात्र एक स्पस्तादि वाले पशु विशेष अर्थात 'गाय' मे रूढ़ हो जाता है । इसी प्रकार शेप भी सब रूढि शब्द इस नय के विपय है । ८. समभिरू नय का लक्षण ३. रा. वा. ४।४२।१७।२६१ ।१६ “समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शव्दस्यैकशव्दवाच्य एक ।" ४. का. अ १२७६ अर्थ:-- समभिरूढ नय चूँकि शब्द नैमित्तिक है, अत उसमें एक शब्द का वाच्य एक ही होता है । मुख्यार्थ वा भापयति अभिष्ट 66 तनय जानीहि । २७६।” अर्थ. - शब्द के अनेक अर्थों में से मुख्य ही अर्थ को ग्रहण कर सिद्ध करता है उसको समभिस्ट नय जानना ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy