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३. प्रतिबिम्ब व चित्रण
पहिले पीछे बनाई जानी ही सभव है । पहिले ही क्षण मे सारी रेखाये बनाई जा सके यह संभव नही है । प्रतिबिम्ब मे हिनाधिकता होनी सभव नही है पर चित्रण मे की जानी संभव है । इसलिये प्रतिबिम्ब सदा सच्चा होता है पर चित्रण झूठा व सच्चा दोनों प्रकार का ।
शब्द व ज्ञान सम्बन्ध
देखिये यहा रत्न व विष्टा दो पदार्थ रखे हों, तो क्या दर्पण इस प्रकार का विवेक करेगा कि रत्न को तो अपने अन्दर ले लूं और विष्टा को छोड दू ? प्रतिबिम्ब मे तो दोनों ही युगपत आ जायेगे । वहा अच्छे बुरे का विवेक नही । परन्तु चित्रण मे मेरी कल्पना कार्य करती है इसलिये अरुचिकर होने के कारण यदि में विष्टा को चित्रित न करके केवल रत्न को चित्रित करू, तो क्या मेरा वह चित्रण प्रतिबिम्ब के अनुरूप हो सकेगा ? नही । और इसलिये वह चित्रण सच्चा नही कहा जायेगा । जव एक वस्तु का चित्रण ही खेचना है तो अच्छे बुरे का प्रश्न क्यों ? चित्रण को प्रतिबिम्ब के अनुसार बनाने का प्रयत्न करे तभी वह सच्चा हो सकेगा ।
ज्ञान वास्तव में एक दर्पणवत है । जो वस्तु इसके प्रत्यक्ष होती है उसका तो तदनुरूप प्रतिबिम्ब इसमे अवश्य पडता ही है, भले ही वह वस्तु अच्छी हो या बुरी । अच्छी को प्रतिबिम्ब रूप से ग्रहण करना और बुरी को छोड़ देना ज्ञान का काम नहीं । मास व फल दोनो को ही यह तो प्रतिबिम्बके रूप में ग्रहण कर लेगा । ज्ञान छोड़ना नही जानता । आगमोक्त हेयोपादेय का विवेक ज्ञान के प्रतिबिम्ब सबधी नही है । वल्कि चारित्र सबधी है । बिना जाने तो हेय व उपादेय का भेद भी कैसे हो सकेगा । ज्ञान का काम तो सहज प्रतिबिम्बों को ग्रहण करने का है छोड़ने का नही । प्रत्यक्ष विषयों के सबंध मे तो यह नियम स्वत. प्राकृतिकरूप से पल ही रहा है । यहां तो अप्रत्यक्ष विषय के संबंध मे कुछ जानना अभीष्ट है । इस विषय का प्रतिबिम्ब तो पड़ नही सकता । भले ही आगे जाकर ज्ञान में वह शक्ति जागृत हो जाये कि इस पदार्थ का भी सहज प्रतिबिम्ब ग्रहण कर सके, पर आज तो उसमे वह