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२. शब्द व ज्ञान सम्बन्ध
४. शब्द की असमर्थता
शक्ति नहीं है। यहा तो न० २ वाला अर्थात चित्रण खेचने का उपाय ही अपनाना होगा। इसलिये इस चित्रण को परोक्षरूप से ऐसा ही बनाने का प्रयत्न करें कि मानो यह प्रतिबिम्ब ही हो, और जैसा कि पहले बता दिया जा चुका है, ऐसा होना तभी संभव है जब कि जैसे जैसे और जिस जिस प्रकार भी वस्तु दिखाई दे, उसको उस प्रकार ही चित्र मे अवकाश दे दिया जाये, एक रेखा मात्र भी छूटने न पाये, भले ही वह तेरी रुचि के अनुकूल हो या प्रतिकूल । रुचि और वस्तु है और ज्ञान और रुचि चारित्र का अग है और ज्ञान ज्ञान का । यहा ज्ञान की बात चलती है, चारित्र की नही, इसलिये इस प्रकरण मे हितअहित या अच्छे बुरे का प्रश्न नही आना चाहिये । यहा तो केवल तीन बाते सामने है-पदार्थ, ज्ञानपट व चित्रकार अनुमान ।
वर्तमान अवस्था मे दर्पण में प्रतिबिम्बवत अध्यात्म के प्रत्यक्ष
ज्ञान की तो आप से बात करना ही निरर्थक है, क्योकि ४. शब्द की वह साधन अभी आपके पास नही है, भले ही आगे जाकर __ असमर्थता हो जाये । अब तो प्रश्न यह है कि इस अदृष्ट विषय
को आपके ज्ञान पट पर चित्रित कैसे किया जाये । यह तो पहिले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि चित्रित वही कर सकेगा जिसने कि किसी भी रूप मे धन्धला मात्र सा भी उसका प्रत्यक्ष किया हो। केवल सुने हुए शब्दों को दुहराने से से ऐसा होना सभव नहीं । खैर यहा तो प्रश्न है कि चित्र; कैसे किया जावे ?
इस नाटक के प्रमुख पात्र तीन है-वस्तु, वक्ता व श्रोता। वक्ता वस्तु को जानता है और श्रोता जानने की जिज्ञासा रखता है । वक्ता उस अध्यात्म विषय से भलीभाति परिचित है । वह अदृष्ट वस्तु उसके हृदय मे प्रत्यक्ष है । श्रोता को उसका परिचय प्राप्त करने की जिज्ञासा है । आपके हृदय मे उस वस्तु को मैं कैसे पहुचाऊँ ? उपर के दृष्टान्त मे तो लेखनी, पदार्थ व चित्र के बीच का माध्यम थी । लेखनी द्वारा