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१५ शब्दादि तीन नय
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७. शब्द नय का कारण
व प्रयोजन
आवश्यक है, नही तो वाक्य दूषित दिखाई देता है । इस वाक्य मे जीव लक्ष्य है और आत्मा उसका लक्षण है । दोनों शब्द भिन्न लिग वाले है, यही कारण है कि यह वाक्य दूषित दिखाई दे रहा है । वाक्य मे ९ शब्द प्रयुक्त हुए है। अवश्य ही इन में से कोई शब्द बदलना पड़ेगा ताकि यह वाक्य सुन्दर सा दिखाई देने लगे । विचार करने पर पता चलता है कि 'ससारी, नित्य, दुःखो वाली इन ,मे से कोई भी शब्द बदल दे, पर समस्या हल नही होती । आओ जीव व आत्मा इन मे से कोई सा शब्द बदल कर देखे । “ससारी जीव नित्य दु.खो मे वर्तने वाला एक चेतन पदार्थ है" इस वाक्य मे अब कोई दोष दिखाई नही देता । 'आत्मा' के स्थान पर उसका एकार्थ वाची 'चेतन पदार्थ' शब्द डाल देने से लक्ष्य व लक्षण दोनो समान लिग वाले हो गये और वाक्य युक्त हो गया। इसी लिये शब्द नय यह नियम स्थापित करता है कि समान लिग सख्या आदि स्वभाव वाले शब्द ही समान अर्थ के वाचक हो सकते है । यही इस नय का कारण है। और इन व्यभिचार दोषो को दूर करके शब्द साम्य की स्थापना करना इसका प्रयोजन है। व्यभिचार दोषो को यक्त मानने से अन्य पदार्थ भी अन्य पदार्थ बन बैठेगा । कहा भी है.
रा० वा० ।१।३३ ।। ।।८।२३ "एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ता।
कुत. अन्यार्थस्याऽन्यार्थेन सम्बन्धाभावात् । यदिस्यात, घट पटोभवतु पटो वा प्रासाद इति ।"
अर्थः—यह सब व्यभिचार अयुक्त है क्योकि अन्य अर्थ से अन्य
अर्थ का कोई सम्बन्ध नही है । यदि ऐसा न माना जाये तो 'घट' पट बन जायेगा और 'पट' मकान । अतः यथा लिग यथा वचन और यथा साधन ही प्रयोग करना चाहिये।