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________________ १५. शब्दादि तीन नय ४१७ ८. समभिरूढ़ नय का लक्षण वस्तु के वाचक शब्दों सम्बन्धी विवेक कराने वाले व्यज्जन नयों ८ समाभिरूढ. नय का लक्षण मे से प्रथम शब्द नय ने केवल लिंगादि व्यभिचार दोषों को दूर किया, अर्थात मित्र लिंग, सख्या व कारक आदि के वाचक शब्दों की एकार्थता का तो विरोध अवश्य किया, परन्तु समान लिंग आदि वाचक शब्दों को सर्वथा एक रूप स्वीकार कर लिया। उन सर्व शब्दों के अर्थ किसी अपेक्षा भिन्न भिन्न भी हो सकते है यह बात उसकी स्थूल दृष्टि मे न आई । समाभिरूढ नय सामने आकर और सूक्ष्मता से उन्ही एकार्थ वाची शब्दो का निरीक्षण करता हुआ यह बताता है कि भले ही रूढ़ि वश ये सर्व शब्द किसी एक पदार्थ के प्रति सकेत करते हो परन्तु इन का वाच्यार्थं वास्तव में भिन्न भिन्न ही है । लोक में जितने पदार्थ है उनके वाचक शब्द भी उतने ही है । यदि अनेक शब्दों का एक ही अर्थ माना जायेगा तो उन के वाच्य पदार्थों को भी मिलकर एक हो जाना पड़ेगा, परन्तु ऐसा होना असम्भव है, अतः प्रत्येक शब्द का भिन्न भिन्न ही अर्थ स्वीकारना चाहिये । और इसीलिये यह नय निरुक्ति व व्युपत्ति अर्थ करके प्रत्येक शब्द का पृथक पृथक अर्थ ग्रहण करता है । इस की दृष्टि मे पर्याय वाची शब्दों की सत्ता नही है । 1 यहा पर यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि शब्द वस्तु का धर्म नही है, वस्तु व शब्द में आत्यतिकी पृथकता है, फिर शब्दों की एकाता से वस्तु मे अभिन्नता कैसे आ सकती है और उसके भिन्न अर्थ स्वीकार कर लेने मात्र से वस्तु मे भिन्नता कैसे उत्पन्न हो सकती है । सो शंका का समाधान पीछे कारण व प्रयोजन बताते समय देगे, वहा से जान लेना । यहां तो केवल इतना ही जानना पर्याप्त है कि शब्द नय के द्वारा ग्रहण किये गये समान स्वभावी अर्थात समान लिंग आदि वाले
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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