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१५. शब्दादि तीन नय
७. शब्द नय का कारण
व प्रयोजन वा प्रतिपादनीयम् । न च इन्द्रशक्रपुरन्दरादयः पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीयन्ते । तेभ्यः सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्माद् एक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति । शब्धते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थः इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् ।"
अर्थ-रूढ़ि से सम्पूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को शब्द
नय कहते है । जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि सर्व शब्द एक 'सुरपति' अर्थ के द्योतक है । जैसे शब्द अर्थ से अभिन्न है वैसे ही उसे एक और अनेक भी मानना चाहिये । अर्थात जिस प्रकार वाचक शब्द से पदार्थ को अभिन्न मानते है, उसी प्रकार प्रतीति गोचर होने के कारण उन सम्पूर्ण शब्दो के अर्थ के (वाच्यार्थ वाच्यार्थो को) भी एक मान सकते है। इन्द्रः शक्र और पुरन्दर आदि पर्याय वाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नही करते, क्योंकि उनसे एक ही अर्थ का ज्ञान होने का व्यवहार है । अतएव इन्द्र आदि पर्याय वाची शब्दो का एक ही अर्थ है । जिस अभिप्राय से अर्थ कहा जाये उसे शब्द कहते है । अतएव सम्पूर्ण पर्याय वाची शब्दो से एक ही अर्थ का ज्ञान होता है ।
लक्ष्य लक्षण आदि सयोगो मे लिगादि का व्यभिचार पड जाने ७. शब्द नय के पर वाक्य कुछ अटपटा सा प्रतीत होने लगता
कारण व प्रयोजन है. जैसे कि “ससारी जीव नित्य दु खो मे वर्तने वाली आत्मा है" इस वाक्य मे स्पष्ट प्रतीति में आ रहा है। जीव की तरफ देखने पर तो 'दुःखो मे वर्तने वाला आत्मा है" ऐसा कहने को जी करता है और आत्मा की तरफ देखने पर "वाली आत्मा" ही उपयुक्त प्रतीत होता है । इस उलझन को वाक्य मे से दूर करना