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पर्यायाथिक नय
त्रनय कहते हैं।
एकत्व मे
अ
१४ ऋजु सूत्र नय ३३८ १. ऋजु स्त्र नय का
सामान्य परिचय पूर्ण एकत्व गत ये विशेष या अंश ही पर्यायाथिक नय के विषय है । उसे ही ऋजुसूत्र नय कहते हैं । अद्वैत मे तो द्वैत रहता है पर एकत्व मे अनेकत्व नही रहता । इसलिये अद्वैत ग्राही सग्रह के साथ तो द्वैत ग्राही व्यवहार नय रहता है, परन्तु एकत्व ग्राही ऋजुसूत्र नय के साथ अन्य कोई नही रहता । इसलिये यद्यपि द्रव्याथिक अर्थ नय के दो भेद है, परन्तु पर्यायायिक अर्थ नय एक ही है, इसके भेद नही है । सामान्य मे विशेष रहता है, पर विशेष मे अन्य विशेष - नही । इसीलिये द्रव्याथिक नय का विषय द्वैत व अद्वैत है तथा पर्यायाथिक नय का विषय एकत्व है।
यद्यपि अद्वेत व एकत्व दोनो ही निविकल्प होते है परन्तु दोनो मे कुछ अन्तर है । अद्वैत मे द्वैत रहता है, परन्तु उसका विकल्प गौण कर दिया जाता है। जवकि एकत्व मे द्वैत किया ही नहीं जा सकता, अत. तहा उसे गौण करने का प्रश्न ही नही। अद्वैत की चरम सीमा पर जिस प्रकार संग्रह नय ग्राहक ब्रह्माद्वैतवादी बैठा है इसी प्रकार एकत्व की चरम सीमा पर ऋजुसूत्र नय ग्राहक बौद्ध बैठा है। दोनों ' ही निर्विकल्प व शुद्ध दृष्टि वाले है।
एकत्व ग्राहक ऋजुसूत्र का विषय दर्शाने के लिये उदाहरण देता हूँ । सर्व परमाणु पृथक पृथक स्वतंत्र द्रव्य है । उन सबका स्वरूप भी जुदा है, अर्थात एक का स्वरूप दूसरे से नही मिलता । वह परमाणु आदि मध्य अन्त की कल्पना से अतीत एक प्रदेशी है । अनेक परमाणुओ का परस्पर मे स्पर्श ही सम्भव नही, फिर उनके द्वारा कोई अखण्ड स्कन्ध की कल्पना करना निरर्थक है। स्थूल दृष्टि मे दीखने वाले इन स्थूल पदार्थों मे भी सर्व परमाणु अपने स्वतंत्र सत्ता व भिन्न भिन्न स्वभावों मे ही स्थित है, भले ही स्थूल दृष्टि मे उनकी वह पृथकता दिखाई न दे । एक परमाणु का दूसरे परमाणु से द्रव्यात्मक क्षेत्रात्मक कालात्मक कि भावात्मक कोई भी सम्बन्ध नही है। वह