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________________ - १३ सग्रह व व्यवहार नय ३२७ ५. व्यवहार नय विशेष मक्त व ससारी के भेद से दो रूप और अजीव को पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश व काल के भेद से पाच रूप कर देता है। व्यवहारगत ये सर्व भेद पुनः अशुद्ध सग्रह द्वारा अद्वैत रूप से ग्रहण कर लिये जाते हैं । जैसे कि मुक्त जीव को एक मानना अशुद्ध सग्रह का काम है और इसी प्रकार संसारी को भी । अशुद्ध सग्रह द्वारा गृहित इन दोनो अवान्तर सत्ताओं को अशुद्धार्थ भेदक व्यवहार पुन विभाजित करके अनेक भेद रूप कर देता है। जैसे कि मुक्त को जम्बुद्वीप मुक्त या धात की खण्ड मुक्त आदि के रूप मे अनेक प्रकार का और ससारी को त्रस स्थावर आदि के भेद से अनेक प्रकार का दर्शाता है। इसी प्रकार आगे-आगे बराबर अशुद्धार्थ भेदक व्यवहार द्वारा ग्रहण किये गये भेद प्रभेदों की अभेद सत्ता को ग्रहण करना अशुद्ध संग्रह का काम है, और उसमें भेद डालना इस व्यवहार का काम है। संग्रह व व्यवहार का यह व्यापार तब तक चलता रहता है, जब तक कि यथा योग्य अन्तिम भेद प्राप्त नहीं हो जाता। इसी लक्षण की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये । । १. वृ. न. च. ।२१० “यः संग्रहेण गृहीतं भिनत्ति अर्थमशु द्धं श द्धं वा । स व्यवहारो द्विविधः शुद्धाशु द्धार्थ भेदकरः ।२१०।" (अर्थ:-जो अशुद्ध संग्रह के द्वारा गृहित अशुद्ध या विशेष या भेद रूप अवान्तर सत्ता को पुन भेद रूप करता है वह अशुद्धार्थ भेदक व्यवहार नय कहलाता है। २. आ. प. ।६ पृ०७८ "विशेषसग्रहभेदको व्यवहारो, यथा जीवा ससारिणो मुक्ताश्च ।" श्लो. वा. 1१1३३१५६
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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