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१३ सग्रह व व्यवहार नय ३२६ ५ . व्यवहार नय विशेष (अर्थः-सामान्य या शुद्ध सग्रह मे डालने वाला शुद्धार्थ भेदक
व्यवहार ऐसा है, जैसे कि "द्रव्य जीव व अजीव के भेद से दो प्रकार का है". ऐसा कहना। . . .
३ नय चक्र गद्य पृ १४ "सामान्यसंग्रहस्याओं जीवाजीवादिभेदत.।
भिनत्ति यवहारोऽय शुद्धसग्रहभेदकः ।१।"
अर्थः-सामान्य सग्रह या शुद्ध सग्रह के अर्थ को जीव व अजीव
आदि के भेद से जो विभाजित करता है वह शुद्ध संग्रह भेदक व्यवहार है।
शुद्ध सग्रह मे भेद डालने के कारण इस नय का “शुद्धार्थ भेदक या शुद्ध सग्रह भेदक व्यवहार" ऐसा नाम सार्थक है। और सत् सामान्य की विशेषता दर्शाकर सदद्वैत मात्र एकान्त का निरास करना, तथा उस सत् की व्यापकता का परिचय देना इसका प्रयोजन है।
२ अशुद्धार्थ भेदक व्यवहार नय --
शद्धार्थ भेदक व्यवहार की भाति ही इस व्यवहार को भीसमझना । अन्तर केवल इतना है कि वह तो शुद्ध संग्रह की विषयभूत महासत्ता को विभाजित करता था और यह अशुद्ध सग्रह की विषयभूत अवान्तर सत्ता को विभाजित करता है । अशुद्ध सग्रह का विषय जो अवान्तर सत्ता है वह अनेक प्रकार है । शुद्धार्थ भेदक व्यवहार ने एक महा सत्ता को जीव व अजीव के भेद से दो रूप कर दिया । इन दोनो का ही पृथक पृथक ग्रहण करके अशुद्ध सग्रह ने इनक अवान्तर भेदों का एक जीव या एक अजीव मे संग्रह कर लिया । इन दोनो की इन अवान्तर अभेद सत्ताओ को पृथक पृथक : ग्रहण करके अशुद्धार्थ भेदक व्यवहार पुन विभाजित कर देता है, अर्थात जीव को