________________
१३ सग्रह व व्यवहार नय
३२०
४. व्यवहार नय सामान्य
व्यक्ति या व्यष्टि की अपेक्षा जो तत्व अनेको अवान्तर जातियो मे विभक्त है, तथा एक एक यह अवान्तर जाति भी अनेको व्यक्तियों में विभाजित है, वही तत्व समष्टि की अपेक्षा एक है । इस प्रकार वस्तु स्वरूप सामान्य विशेष उभय रूप है। इनमें से सामान्य रूप को ग्रहण करने वालासग्रण नय है और विशेष रूप को करने वाला व्यवहार नय है सग्रह नय किसी भी वस्तु को वह महा सत्ता रूप हो या अवान्तर सत्ता रूप, अद्वैत रूप में मे देखता है, और व्यवहार नय उसके द्वारा ग्रहण किये गये उसी अद्वैत महा सत्ता मे व अवान्तर सत्ता मे द्वैत उत्पन्न कर देता है। अद्वैत देखने के कारण संग्रह नय शुद्ध द्रव्याथिक नय कहलाता है ओर द्वैत देखने के कारण व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्याथिक कहलाता है । अशुद्ध कहने का तात्पर्य यह नही कि उसका विषय असत् है, बल्कि यह है कि वह भेद ग्राहक है।
सामान्य व विशेष दोनो अंश वस्तु मे साथ साथ रहते है, इसलिये उनके ग्राहक सग्रह व व्यवहार नय भी सदा साथ रहते है, या यो कहिये कि वे दोनों सगे भाई है। संग्रह के बिना व्यवहार का और व्यवहार के बिना सग्रह का कोई विषय नहीं, जैसे कि पिता के बिना पुत्र और पुत्र के बिना पिता का कोई अर्थ नही । द्वैत या भेद करने या विशेष अश को देखने का क्या तात्पर्य है इसी बात को स्पष्ट करता हूं।
एक किसी वस्तु को लेकर उसमे जाति व व्यक्तिगत भेद डाले। उन जाति या व्यक्ति गत भेदों में से प्रत्येक को पृथक पृथक स्वतत्र वस्तु रूप से ग्रहण करके पु न उनमे भेद डाले । और इसी प्रकार इन प्रभेदो को भी पृथक पृथक ग्रहण करके पुन उनमे भेद डाले।
और इस प्रकार बराबर भेद डालते जाये जब तक कि वह अन्तिम भेद प्राप्त न हो जाये जिस का पुन' भेद न किया जा सके । यही वस्तु का विश्लेषण करने का उपाय है । इसी को विभाजन या व्यवहार