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१३ . सग्रह व व्यवहार नय
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४. व्यवहार नय सामान्य
करना भी कहते है। यहा यह समझना कि जहां भेद डालने का काम हो वहा तो व्यवहार नय का व्यापार होता है, और जहां उन भेदो मे से किसी एक को पृथक निकाल कर एक जाति रूप स्थापित करने का काम हो, वहां सग्रह नय का व्यापार होता है। यही व्यवहार व संग्रह नय की मैत्री है।
उदाहरण के रूप मे महासत्ता एक अद्वैत सद्ब्रह्म है। वह दो भेद रूप है-चेतन व अचेतन । इनमें से चिब्रह्म अर्थात चेतन दो भेद रूप है-ससारी व मुक्त । इनमे से संसारी भी दो भेद रूप है-त्रस व स्थावर । स्थावर भी पाच भेद रूप है-पृथ्वि, जल, अग्नि, वायु, व वनस्पति । वनस्पती भी दो प्रकार है-साधारण व प्रत्येक । प्रत्येक नाम वाली वनस्पति अनेको प्रकार की है-घास, फल, फूल, पत्र आदि। फल अनेक प्रकार के है सतरा केला अमरूद आदि । एक अमरूद भी यद्यपि एक है परन्तु अनेकों परमाणुओ का पिण्ड होने के कारण अनन्त परमाणओं रूप से विभाजित किया जा सकता है । आगे परमाणु का भेद नही किया जा सकता। इसी प्रकार जिस किसी भी वस्तु के उत्तरोत्तर भेद प्रभेद करते हुए अन्तिम भेद तक पहुंचा जा सकता है । यहा केवल इतनी बात ध्यान में रखने योग्य है कि उपरोक्त दृष्टान्त मे अमरूद तक के सर्व भेद तो व्यवहार गत हैं अर्थात सर्व सम्मत है, परन्तु अन्तिम जो परमाणु कृत भेद है वह व्यवहार गत नहीं है, क्योंकि परमाणु पृथक रह कर किसी प्रत्यक्ष कार्य की सिद्धि करने में असमर्य है । इसलिये भेद करने की उपरोक्त प्रक्रिया में यहा अमरूद तक के व्यवहार गत भेदो का ही ग्रहण किया जा सकता है, परन्तु परमाणु कृत भेद का नही ।
भेद भी चार प्रकार से किया जा सकता है-द्रव्य की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा, काल की अपेक्षा व भाव की अपेक्षा। द्रव्य गत भेदों का कथन ऊपर किया जा चुका है। क्षेत्र कृत भेद प्रदेश भेदको कहते है। जीव