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१३. सग्रह व व्यवहार नय ३१६ ४. व्यवहार नय सामान्य इसके सहवर्ती दूसरे व्यवहार नय का लोप करने के कारण वे लोग इस अद्वैत सत् का विश्लेषण पूर्वक कथन करने मे अथवा उसे समझने व समझाने में असमर्थ है।
काश कि साथ मे रहने वाले उस व्यवहार नय के विषय को भी यथा योग्य रूप में स्वीकार कर लेते तो वास्तव में एकान्त से किसी सर्वदा अद्वैत सत् की सत्ता देखी नही जा सकती। वह पूर्व कथित अद्वैत सत् किसी विशेष दृष्टि से देखने पर द्वैत रूप भी दिखाई देता है । अद्वैत सत् का यह अर्थ नही कि कोई संख्या मे.एक ही पदार्थ सत् नामका है, जो सकल ब्रह्माण्ड मे व्याप कर रहता है, बल्कि यह है कि सकल वस्तु समूह सामान्य स्वभाव की अपेक्षा सत्स्वरूप है । अर्थात उसके जितने भी अवान्तर भेद प्रभेद है वे सब ही यथार्थ हैं । उन सर्व भेदों को भ्रम मात्र कहकर किसी एक सख्यक सत् की स्थापना करना केवल कल्पना है सत्य नही, क्योंकि ऐसा प्रत्यक्ष विरुद्ध है । जो नित्य प्रतीति में आता है उसे स्वीकार न करना अपने को धोखा देना है । अत. सर्व ही शुद्ध व अशुध्द द्रव्याथिक तथा पर्यायर्थिक नय के विषयों को स्वीकार करके, यथा योग्य रूप मे इस अद्वैत सत् मे बाह्य मे दृष्ट जाति व व्यक्तिगत भेद तथा उनके अभ्यन्तर स्थित गुण पर्यायादि कृत भेद देखना न्याय संगत है । वे गौण संगत है। वे गौण किये जा सकते है पर निषिध्द नही।
द्वैत के विना अद्वैत का कोई अर्थ नही, अतः दोनो को वस्तु स्वरूप में स्थान देना योग्य है । सामान्य के बिना विशेष और विशेष के बिना सामान्य गधे के सीग के समान असत् है। जहां विशेष ही नही वहां सामान्य भी किसे कहेगे ? जहा अनेकपना नही वहा एकपना किसे कहेगे । समानपने का नाम. ही सामान्य है। पर अनेकता के बिना वह समानता कैसे दृष्ट हो सकेगा। अत.