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________________ १३ सग्रह व व्यवहार नय ३१८ ४ . व्यवहार नय सामान्य ' अब इस नय के कारण व प्रयोजन बताता ह । सत् रूप से एक होते हुए भी वह महा सत्ता अनेको जाति के पदार्थों रूप देखने में आती है । इसलिये जब एक को खण्डित करके उसमे अनेक जातीयता का व्यवहार करने में आता है, तब एक जाति की व्यक्तिगत अनेकता का निरास करके उसमें एकत्व की स्थापना करना इसका कार्य है । जाति की अपेक्षा करने पर उन सर्व व्यक्तियों मे दीखने वाला एकत्व या सग्रह ही इस नय की उत्पत्ति का कारण है। यदि जाति रूप से सर्व व्यक्ति एक देखने में न आये होते तो यह नय भी न होती। तव तो वचन व्यवहार भी असम्भव हो गया होता। - जैसे कि 'गाय एक पशु विशेष है' ऐसा कहने का व्यवहार है। यदि लोक की सर्व गायों में यह एक गायपने वाली एक जातीयता न होती तो गाय किसे कहते ? प्रत्येक गाय को पृथक पृथक नाम देना पड़ता । जब एक को गाय कहेगे तो दूसरी को गाय न कह सकेगे, क्योकि एक जातीयता के अभाव मे दोनो का नाम एक होना विरोध को प्राप्त हो जायेगा । अनन्तानन्त जड व चेतन व्यक्तियों के लिये पथक-पृथक शब्द रखकर वचन व्यवहार चलना असम्भव है । यही इस नय की उत्पत्ति का कारण है। वस्तुओ के व्यक्तिगत भेदो मे एक जातीयता उत्पन्न करके वचन व्यवहार को सम्भव बनाना तथा व्यक्तिगत भेदों मे एक अभेद जातीयता का परिचय देना इस नय का प्रयोजन है। शुध्द सग्रह नय का लक्षण करते हुए यह बात बताई गई थी ४. व्यवहार नय कि महासत्ता ग्राहक वह नय जगत को एक अद्वैत सामान्य सद्ब्रह्म के रूप मे देखता है। इस दृष्टि से देखने पर सदद्वैत वादियो का सिद्धात कि "जगत मे एक सत् ही है, उससे अतिरिक्त सर्व भ्रम है" बिल्कुल सत्य है । भल है केवल यह कि
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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