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१३ सग्रह व व्यवहार नय ३०६
१ महा सत्ता व
- अवान्तर सत्ता द्वैताद्वैत, क्षेत्र की अपेक्षा द्वैताद्वैत, काल की अपेक्षा द्वैताद्वैत और भाव की अपेक्षा द्वैताद्वैत ।
- सर्व प्रथम चारो विकल्पो से उसकी अद्वैतता को पढिये, पीछे द्वैत भाव को पढा जायेगा। ऐसा करने पर वह एक, सर्वव्यापी, नित्य व एक्यरूप ही प्रतीति मे आता है। सो कैसे वही बताता हूँ। द्रव्य की अपेक्षा देखने पर, बताइये वह उपरोक्त दृष्टि में आने वाला महासत् क्या एक है या अनेक ? अनेक पदार्थो मे अनुगत होने के कारण क्या वह खण्डित होकर अनेक रूपो में बिखर गया है ! उत्तर स्पष्ट है कि नही, वह तो एक अखण्डित सत् ही है । यह द्रव्य की अपेक्षा उसमे अद्वैत हुआ । क्षेत्र की अपेक्षा विचार करने पर वह अधो लोक, मध्य लोक व उर्ध्व लोक रूप से तीन प्रकार का कहा जाने पर भी . क्या तीन भागो मे विभाजित हो गया है ? उत्तर स्पष्ट है कि नहीं वह तो तीनो मे अनुगत एक सर्वव्यापी भाव है । यह क्षेत्र की अपेक्षा अद्वैत हुआ । काल की अपेक्षा विचारने पर एक के पश्चात् एक रूप से होने वाला, सत्युग व कलियुग आदि कालक्रम का व्यवहार होने पर भी, क्या वह 'सत्' क्रमवर्ती अनेक भेदो में विभाजित हो गया है ? उत्तर स्पष्ट है कि नही वे तो त्रिकाल प्रतीति मे आने वाला एक नित्य भाव है । इसी प्रकार भाव की अपेक्षा विचार करने पर, भिन्न भिन्न पदार्थों के भिन्न भिन्न गुण दिखाई देने पर भी, क्या 'सत्' अनेक गुण रूप हो गया । क्या वह भी चेतन-अचेतन या मूर्त अमूर्त हो गया है ? उत्तर स्पष्ट है कि नहीं, वह तो इन सर्व भावो मे अनुगत तथा इन सबसे विलक्षण जैसा है वैसा एक्यरूप ही है । जिसे शब्द द्वारा नही कहा जा सकता । यह भाव की अपेक्षा इसका अद्वैत है । इस प्रकार द्रव्यो व भावों के विकल्प से रहित, तथा क्षेत्र व काल की मर्यादा से अतीत वह तो एक, सर्वव्यापी, नित्य व एक्यरूप है । द्वैत दृष्टि से देखने पर यद्यपि वह चेतन अचेतन आदि अनेक पदार्थ रूप दिखने लगता है, पर उपरोक्त अभेद व्यापक दृष्टि मे वह इन सर्व विकल्पो