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१३. सग्रह व व्यवहार नय ३०५
१ महा सत्ता व
___“अवान्तर सत्ता पृथक न देखकर उनमे अनुगताकार सन्मात्र भाव को देखें, अर्थात उनके अस्तित्व मात्र को देखे, तो लोक में 'सत्' के अतिरिक्त और है ही क्या ? क्योकि जो कुछ भी है वह सत् को उल्लधन नही कर सकता । बस इस सत् सामान्य कोही महा सत्ता कहते हैं, और जिन पृथक पृथक पदार्थों मे वह अनुगत है वे सर्व उसके अवान्तर भेद ही अवान्तर सत्ता कहलाते हैं । इन दोनों मे अवान्तर सत्ताये तो वस्तुभूत हैं, क्योकि अर्थ क्रियाकारी है, जैसे जीव की अर्थ क्रिया जानना और पुग्दल की अर्थक्यिा घट पट आदि का निर्माण करना है । परन्तु महा सत्ता कोई वस्तुभूत स्वतंत्र पदार्थ नही है, वह तो दृष्टि विशेष मे आने वाली एक कल्पना है, जो सर्व ही भिन्न भिन्न पदार्थों को एक डोरे- में पिरोकर उन्हें एकाकार कर देती है। अवान्तर सत्ताओं मे तो द्रव्य, गुण व पर्याय आदि के अथवा उत्पत्ति विनाश व ध्रुवता के भाव पाये जा सकते है, परन्तु महा सत्ता मे इन सबकी कल्पना भी सम्भव नही है। वह तो एक सामान्य भाव मात्र है, जो वस्तुओ के अस्तित्व के प्रति सकेत करता है।
इन दोनों को ही सामान्य व विशेष रूप में देखा जा सकता है। आइये अत्यन्त व्यापक अभेद दृष्टि के द्वारा इस विश्व की सत्ता का निरीक्षण करें । समस्त चेतनाचेतनात्मक इस रंगबिरगे विश्व को एक अखण्ड सत् के रूप में देखिये । यह समस्त विश्व 'है' इसके अतिरिक्त और कुछ विकल्प करने की आवश्यकता भी क्या ? वह जड़ व चेतन पदार्थों का समूह है, यह विचारने की आवश्यकता भी क्या ? जैसा कुछ भी चित्र विचित्र रूप वाला वह हो, 'वह है या नहीं' इतना ही विचार कीजिये । स्पष्ट है कि वह तो है ही है। बस यही भाव तो 'महा सत्ता' शब्द का वाच्य है । यह महा सत अद्वैत है कि द्वैत, ऐसा विचार करने पर वह दोनो ही प्रकार से प्रतिभासित होता है, केवल निविशेष एक्यरूप हो ऐसा नही है । अद्वैत . व. द्वैत रूप देखने के लिये चार-विकल्प उत्पन्न होते है-द्रव्य की अपेक्षा