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अवान्तर सत्ता
१३ सग्रह व व्यवहार नय ३०७
१ महा. सत्ता व से परे कोई एक सद्ब्रह्म मात्र अद्वैत तत्व है । यही महा सत्ता शब्द का वाच्य है।
अव तनिक भेद या द्वैत द्रष्टि उत्पन्न करके देखिये । “वह उपरोक्त सत् क्या सर्वथा एक है" ऐसा विचार करने पर, चेतन अचेतन पदार्थो रूप इसके अवान्तर भेद दृष्टि से ओझल नहीं किये जा सकते। क्योकि निविशेष सामान्य खरविषाण वत् होता है' ऐसा न्याय होने के कारण, इन सर्व अवान्तर भदों के अभाव मे, वह सत् अनुगताकार रूप से किन मे रहेगा ? अवान्तर भेदों के अभाव मे उसका भी अभाव हो जायेगा । जैसे आम नीबू आदि वृक्ष विशेषों के अभाव मे वृक्ष सामान्य की सत्ता कोई चीज नही । यह चेतन व अचेतन सत् हो उस महा सत् की अवान्तर सत्ता कहलाती है ।
इन दोनों में से भी चेतन को या अचेतन को यदि पृथक पृथक ग्रहण करे, तो इन्हे भी उपरोक्त प्रकार अभेद व भेद दोनो दृष्टियो से पढा जा सकता है । अभेद द्रव्य दृष्टि से देखने पर पूर्ववत् ही वह चेतन-सत् मुक्त जीव व ससारी जीव आदि अपने अवान्तर भेदो मे अनुगताकार रूप से रहने वाला एक है, क्योंकि चेतन सामान्य की अपेक्षा क्या मुक्त व. क्या ससारी सब चेतन है । अभेद काल दृष्टि से देखने पर क्रमवर्ती मनुष्य तिर्यन्चादि या बालक वृद्धादि अनेको अवस्थाओ मे अनुगताकार रूप से नित्य स्थायी है। अभेद भाव की दृष्टि से देखने पर वह चेतन ज्ञान व चरित्रादि अपने अनेक गुणो मे अनुगताकार रूप से रहने वाला, उनके पृथक पृथक स्वरूप से विलक्षण कोई एक्यरूप भाव वाला है । सत्ता के अवान्तर भेदो मे क्षेत्र की अपेक्षा सर्वव्यापी पना नही देखा जा सकता, क्योंकि उनका क्षेत्र अपने अपने भेदो तक ही सीमित है। इस प्रकार द्रव्य व भाव की अपेक्षा निर्विकल्प और काल की मर्यादा से अतीत वह एक नित्य तथा एक्यरूप चिद्ब्रह्म मात्र अद्वैत तत्व है । यहो अवान्तर सत्ता शब्द का