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११. शास्त्रीय नय सामान्य २२० ३. द्रव्यार्यिक व पर्यायार्थिक
नय सामान्य वही अशुद्ध द्रव्याथिक का विषय बन जाती है, क्योंकि यहा उसके सम्बन्ध से द्रव्य ही प्रमुखतः देखा जा रहा है।
अर्थ व व्यञ्जन पर्यायों में से अर्थ पर्याय तो सर्वथा पर्यायाथिक नय का ही विषय बन सकती है, क्योंकि उसमे किसी प्रकार भी अन्य पर्याय दिखाई नहीं देती और इसलिये निविशेष है।
परन्तु मनुष्यादि व्यञ्जन पर्याये सर्वथा निविशेप नहीं है । यद्यपि । द्रव्य की दृष्टि से वह अवश्य निविशेष है क्योकि किसी एक व्यक्ति गत मनुष्य में अन्य मनुष्य की सत्ता नही है, परन्तु क्षेत्र की अपेक्षा उसका असख्यात प्रदेशी एक अखण्ड क्षेत्र अनेकों प्रदेशो मे अनुगत है, काल की अपेक्षा भी वह बालक युवा वृद्ध आदि विशेष पर्यायो मे अनुगत है और इसी प्रकार भाव की अपेक्षा भी बालक आदि के अनेक भाव विशेषो मे अनगत है, इसलिये कथाचित सविशेप भी है । इसलिये वह द्रव्याथिक अ पर्यायाथिक दोनों नयों के विपय बन सकते है।
मनुष्य को यदि बालक आदि पर्यायो से निर्पेक्ष एक स्वतत्र व्यक्ति की अखण्ड सत्ता के रूप मे ग्रहण करे तो वह पर्यायार्थिक का विषय है, और यदि बालक आदि पर्यायो के पिण्ड रूप से ग्रहण करे तो अशुद्ध द्रव्याथिक का विषय है, क्योकि यहा अनेक पर्यायो मे अनुगत एक सामान्य अश दृष्टिगत हो रहा है ।
इसी प्रकार द्रव्य क्षेत्र व भाव में भी लागू करे । द्रव्य की अपेक्षा एक से अधिक द्रव्यो मे किसी प्रकार का एक क्षेत्रा व गाह या निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध देखना द्रव्याथिक नय का विषय है, और सर्व अन्य द्रव्यो के सम्बन्ध से सर्वथा रहित एक व्यक्तिगत द्रव्य की ही स्वतत्र सत्ता देखना पर्यायाथिक नय का विषय है । इस दृष्टि में न जीव व कर्म आदि का संयोग सम्भव है और न किसी के