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११. शास्त्रीय नय सामान्य .२१६ ३. द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक
नय सामान्य के कारण, बालक आदि अवस्थाओं का समूह ही मनुष्य है, या उष्णता व प्रकाशता आदि तिर्यक् विशेषों का समूह ही अग्नि है, इस प्रकार के विकल्प पूर्वक उस उस पदार्थ का ग्रहण करने में आता है । इनमें से अभेद ग्राहक द्रव्याथिक दृष्टि को शुद्ध द्रव्याथिक नय कहते हैं और भेद ग्राहक द्रव्याथिक दृष्टि को अशुद्ध द्रव्याथिक नय कहते है।
पर्यायर्थिक दृष्टि मे काल कृत भेद की प्रमुखता है । वह काल सूक्ष्म व स्थूल दोनों प्रकार का हो सकता है, जिसके कारण से पर्याय भी सूक्ष्म व स्थूल के भेद से दो प्रकार की हो जाती है, ऐसा पहले वताया जा चुका है । सूक्ष्म पर्याय को अर्थ पर्याय और स्थूल पर्याय को व्यञ्जन पर्याय कहते है। इन दोनों में से कोई सी भी एक पर्याय को मूल द्रव्य से पृथक करके, एक स्वतंत्र द्रव्य के रूप में देखने वाली दृष्टि पर्यायाथिक है । इस दृष्टि में इस पर्याय का मूल द्रव्य के साथ कोई भी सम्बन्ध देखा नही जाता । देखा भी जा सकता है जब कि इस दृष्टि मे पर्याय से अतिरिक्त और कोई द्रव्य नाम का पदार्थ दीखता ही नहीं । जैसे-कि मनुष्य मनुष्य ही है, ओर तिर्यचं तिर्यचं ही । इनमे अनुस्यूत रूप से रहने वाला ओर जीव द्रव्य कौन है, यह जानने मे नही आता ।
अर्थ व व्यञ्जन पर्यायों मे से अर्थ पर्याय तो सर्वथा पर्यायार्थिक का ही विषय बन सकती हैं । क्योंकि वे व्यवहार गम्य नहीं है, पर व्यञ्जन पर्यायो मे बालक, युवा आदि कुछ ऐसी पर्याये भी है, जिन मे अनुस्यूत एक व्यक्ति सामान्य सर्व सम्मत है तथा व्यवहार गम्य है । ऐसी पर्याय पर्यायाथिक व द्रव्याथिक दोनों की विषय बनाई जा सकती है । वालक आदि को यदि स्वतत्र व्यक्ति के रूप मे ग्रहण करें तो वह पर्यायाथिक का विषय बन जाती है, और उन्ही का यदि एक व्यक्ति सामान्य की किन्ही विशेष अवस्थाओ के रूप मे ग्रहण हो तो