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8 नय की स्थापना
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७ वस्तु में नय प्रयोग की रीति करना पड़े तो कथन क्रम ही नही चल सकता । जैसे कि रेखा गणित विज्ञान (Geometry ) मे एक समस्या ( Problem ) को हल कर देने के पश्चात उस समस्या का कोई सज्ञा करण कर दिया जाता है । ताकि आगे आगे के सवालों में जहा कही भी उस प्रकारकी उस समस्या आ जाये, तो केवल उस समस्या के नाम का हवाला दे देना पर्याप्त हो सके, उसे पुन. हल करना न पड़े। इसी प्रकार एक बार दृष्टि को समझा देने के पश्चात उसका संज्ञा करण कर दिया जाता है । ताकि आगे आगे के प्रकरणो मे जहां कही भी उसी प्रकार की दृष्टि आ जाये, तो केवल उस दृष्टि के नाम का हवाला या नय का नाम देना ही पर्याप्त हो सके, उसे पुनः समझाने की आवश्यकता न पड़े ।
यद्यपि हर वाक्य मे वक्ता की कोई न कोई दृष्टि अवश्य छिपी रहती है, परन्तु कथन क्रम मे सर्वत्र प्रत्येक वाक्य के साथ उस दृष्टि या नय का हवाला देकर ही कथन करना भी सम्भव नही है । क्योकि कथन क्रम तो धारा प्रवाही रूप से बहा चला जाता है । वक्ता में स्वत यथा अवसर एक दृष्टि के पीछे दूसरी दृष्टि जागृत होती रहती है, और उस उस दृष्टि के अनुरूप वाक्य बन बनकर उसके मुख से निकलते रहते है । यह काम आप ही आप ( automatically ) इतनी जल्दी हो जाता है कि स्वय वक्ता भी यह जान नही पाता, कि क्या दृष्टि आई थी और क्या वाक्य निकल गया । क्यों कि बोलते समय यह विचारा नही जाया करता, कि इस पर अमुक दृष्टि काम देगी, और अमुक प्रकार का वाक्य बोलना चाहिये । यह वक्ता के अभ्यास पर निर्भर है, कि उसे धारा प्रवाही रूप से दृष्टिये बराबर जागृत होती चली जाये । दृष्टि उत्पन्न होने पर बिना विचारे वाक्य तो स्वय बन जाया करता है ।
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अव श्रोता की ओर चल कर देखिये । यदि श्रोता मुख्य मुख्यं सब दृष्टियों या नयों से परिचित है, तो वक्ता का वाक्य सुनते ही