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६. नय की स्थापना
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७. वस्तु मे नय प्रयोग
की रीति अब किस श्रोता को समझाने के लिये, कौनसा अंग उठाकर उसे उस समय दर्शाया जाये कि वह हित मार्ग पर अग्रसर हो सके, यह वक्ता अपनी योग्यता पर निर्भर है । इसे वक्ता का अभिप्राय या दृष्टि कहते है । यह नियम करना तो असम्भव है कि वक्ता को अमुक ही अंग अमुख अवसर पर कहना चाहिये, इसलिये वक्ता किस दृष्टि से कब क्या बात कह रहा है, यह विवेक उत्पन्न करने के लिये श्रोता को कुछ अपना अभ्यास करना पडेगा। इस प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ वक्ता की कुछ मुख्य मुख्य दृष्टियों का परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है, जिन दृप्टियो के आधार पर कि हित मार्ग में प्रमुखतः कथन करने में आता है । दृष्टि तो वक्ता का अभिप्राय है, इसलिए प्रत्यक्ष दिखाई नहीं जा सकती। हा अनेक दृष्टान्तों व उदाहरणों के आधार पर यह अवश्य समझाया जा सकता है, कि अमुक अवसर पर अमुक प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ, अमुक अग का कथन करने से श्रोता पर यह प्रभाव पड़ता है । इस प्रकार वस्तु के अगों की व्याख्या की भाति ही वक्ता की इन दृष्टियों का भी पृथक पृथक विस्तृत कथन किया गया है । उदाहरणों व दृष्टान्तो के आधार पर किये गये इस विस्तृत कथन पर से जब श्रोता उस दृष्टि के भाव को समझ जाता है तो, उस दृष्टि का भी कोई नाम रख दिया जाता है । यद्यपि दृष्टि कोई पदार्थ नही, पर उसको किसी न किसी नाम से पुकारा जाना सम्भव है। समझने व समझाने के लिये नाम या शब्द ही एक माध्यम है ।
- इस दृष्टि का नाम भी जब श्रोता को याद हो जाता है, तो उसके लिये वह नाम वाला एक शब्द का सकेत मात्र ही अब वक्ता की उस दृष्टि का स्पर्श करने के लिये पर्याप्त हो जाता है, जिसको समझाने के लिये कि पहिले इतने लम्बे विस्तार की आवश्यक्ता पड़ी थी। यदि दृष्टि का कोई नाम न रखे तो पुन पुनः उस उस प्रकार का वाक्य बोला जाने पर वही दृष्टान्त व उदाहरण दोहरा कर, पुनः पुन उस दृष्टि को विस्तार से समझाने के लिये यदि इतना विस्तृत कथन