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८. सप्त भगी
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१.सप्तभंग सामान्य का परिचय
का ज्ञान करते या कराते हुए यह सात भंग स्वतः उत्पन्न हो जाते है । अब तक वस्तु के अनेकों अगों का तथा सामान्य व विशेष का स्वरूप दर्शाया गया। इन अपने सर्व अगोपांगो से समवेत वस्तु सदा ही इनमे स्थित रहती है, न तो इनमे से किसी भी विशेष का त्याग कर सकती है, और न किसी अन्य वस्तु के किसी एक भी सूक्ष्म या स्थूल विशेप को ग्रहण कर सकती है । वस्तु की इस स्वतंत्रता को दर्शाना ही इस सिद्धांत का प्रयोजन है ।
यद्यपि लोक मे कोई विषय ऐसा नहीं कि जिनका ज्ञान इन सातों बातो से निर्पेक्ष हो रहा हो, परन्तु इन्द्रिय प्रत्यक्ष व सुलभ होने के कारण उस ज्ञान मे इन सात बातो का स्थूल दृष्टि से साक्षात हो नही पाता । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर तो ये सातो बाते उस साधारण प्रति दिन के ज्ञान मे भी अवश्य दिखाई देती है।
इसका कारण है वस्तु का अनेक धर्मों से युगपत स्पर्श और उन सव को युगपत कह सकने में असमर्थ वचन और इन दोनो का परस्पर वाच्य वाचक सम्बन्ध जिस प्रकार वस्तु मे अनेक धर्मो की युगपत -सत्ता है उस प्रकार की युगपत वाचकता वचन मे नही, और जिस प्रकार उन्ही धर्मो की क्रमिक वाचकता वचन मे है उस प्रकार उनकी क्रमिक सत्ता वस्तु मे पाई नहीं जाती।
घट या स्वर्णादि पदार्थो के द्ष्टांतों के आधार पर शीघ्र ही इन सातों की व्याख्या हो जाने के कारण ऐसा प्रतीत होने लगता है कि ये भग इतने आवश्यक नही जितना कि इन्हें कहा जाता है, यदि इनको आवश्यक भी माना जाये तो केवल एक वा दो भगों से ही काम चल सकता है । परन्तु वास्तव में ऐसा नही है । प्रत्येक बात को जानने के लिये ये सात ही भग उत्पन्न होते है, हीनाधिक नही । यह बात तब प्रतीति मे आती है जबकि लक्ष्य पदार्थ अब तक सर्वथा अदृष्ट, अतीन्द्रिय, अननुभूत व अंश्रुत या बिना जाना देखा रहा हो । वे सात भग