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७. आत्मा व उसके अग १३७ १०. वस्तु मे पाचो
- भावों का दर्शन डलियो को धोकर साफ कर लिया गया। अब इन का रूप लाल पत्थर की बजरी वत दीखता है । यद्यपि। - अन्दर का खोट सर्वथा निकल गया परन्तु अब भी बाहर. मे कुछ कमी है । “सो अन्दर की अपेक्षा तो यह पूर्ण शुद्ध है और बाहर की अपेक्षा कुछ अशुद्ध । यहां इसके अन्दर मे तो क्षायिक भाव समझिये । क्योकि खोट का क्षय हो गया है, और बाहर मे औदायिक भाव समझिये । अब इन डलियों को आग पर गलाने के लिये रख दिया। गलने के पश्चात साचे मे भर कर इसका फासा बना दिया गया। अब इसका बाहर का रूप भी सुनहरी व चमकदार हो गया। अन्दर और बाहर दोनों दृष्टियो से यह अब शुध्द है । सो यह इसका पूर्ण क्षायिक भाव समझिये । परन्तु इसके औदयिक, क्षायोपाशमिक व क्षायिक तीनो भावों मे दीखने वाले स्वर्णत्व मे क्या अन्तर पड़ा ? जो स्वर्ण त्व पहिली अवस्था मे था वहीं दूसरी में था और वही अब इस अन्तिम अवस्था मे है । वह तो न अशुध्द हुआ था और न शुध्द हुआ। न चान्दी के साथ संयोग को प्राप्त हो सका था और व सयोग को क्षय कर पाया है । अत. वह तो त्रिकाली शुध्द ही रहा । बस यही स्वर्णत्व इसका पारिणामिक भाव समझिये।
यदि मै पूछ् कि हार का रूप या शकल क्या है तो तुरन्त उसका फोटो मेरे सामने रख देगे । यदि पूछ कि फासे का आकार क्या है तो उसका भी फोटो मेरे सामने रख देगे। पर यदि पूछ कि स्वर्णत्व का आकार क्या है तो उसका कोई फोटो न रख सकेगे, और कहेगे कि स्वर्णत्व तो भाव वाचक है, उसका आकार हो ही नहीं सकता, वह तो केवल जाना जा सकता है । इसी प्रकार औदयिक भाव का भी आकार हो सकता है, क्षायिक भाव का भी आकार हो सकता है, पर पारिणामिक भाव का कोई आकार नहीं हो सकता।
अब यदि मैं पूछ कि बताइये तो सही कि इस पृथिवी पर कुल ऐसे हार कितने होगे। तो अनुमान के आधार पर आप कह सकेगे कि