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७. आत्मा व उसके अग १३५६. भावो का स्वामित्व
औदायिक भाव भी चारित्र व श्रध्दा मे विपरीतता रूप से तथा वेदना में दु ख रूप से व्यक्त हो ही रहा है। इन तीनो मे क्षायोपशमिक भाव नही है औदायक है । प्रश्न होता है कि साधारण जीवो में क्षायोपशमिक भाव क्या है । सो यहां ज्ञान मे क्षयोपशमिक व औदयिक दोनो भाव पाये जाते हैं । जब तक पूर्ण ज्ञान प्रगट होता नही तव तक ज्ञान का कुछ भाग तो व्यक्त रहता है, और कुछ दबा रहता है । कोई भी जीव ऐसा नहीं जिसमे ज्ञान पूर्ण रूपेण दब गया हो अर्थात शत प्रतिशत अन्धकार हो । निगोदिया तक मे भी १ प्रतिशत प्रकाश प्रगट रहता अवश्य है, भले वह कुछ कार्यकारी हो या न हो। ज्ञान मे ही यह नित्य व्यक्ताव्यक्त पने की बात लागू होती है, अन्य गुणो मे नही । क्योकि अन्य गुणों मे तो शुध्दता व अश ध्दता का अर्थ अनुरूपता व विपरीतता है, पर ज्ञान सदा ही जानने रूप रहता है । इसका विपरीत परिणमन सम्भव नही । इसकी व्यक्ति मे हीनता अधिकता रहती है, पर अन्य गुणों की व्यक्ति मे, हीनता अधिकता नहीं रहती। वहा तो शुध्द व्यक्ति की हीनता व अशुध्द व्यक्ति की अधिकता या अशुध्दता की हीनता और शुध्द की अधिकता रहती है । पर गुण सामान्य की व्यक्ति की अपेक्षा हीनता अधिकता वहां नहीं रहती । ज्ञान मे ही वह सम्भव है । अत जितने अंश में ज्ञान प्रगट व्यक्त है वह उस" ज्ञान गुण का क्षायोपशमिक भाव है, और जितने अश मे उस की व्यक्ति का अभाव है या अन्धकार है उतने अंश में उसका औदयिक भाव है। इसलिये प्रत्येक संसारी जीव मे ज्ञान के क्षायोपमिक व औदयिक दोनों भाव विद्यमान रहते है। ज्ञान का पूर्ण औदयिक भाव किसी में भी नही होता । इसी लिये ससारी जीवों मे तीन भावो का सद्भाव बताया गया ।
सिद्ध जीवों मे पारिणामिक तो है ही। शेष चारों में से केवल क्षायिक भाव है । क्योंकि किसी गुण मे अशु ध्दि रूप से या ज्ञान मे हीनता रूप से औदयिक भाव सर्वथा नही। औदयिक के अभाव मे क्षायोप