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७ आत्मा व उसके अग
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कुछ इस प्रकार का होता है, कि अरे काहे को अपने वडप्पन पर इतराता है । छोटा ही बना रहना ठीक है । बेटा बनकर सब ने खाया है बाप बनकर किसी ने नही । माया से विपरीत सरल या आर्यत्व भाव है । जिसका रूप कुछ इस प्रस प्रकार का होता है, कि क्या रखा है छल कपट करने व ढोग रचाने मे । जो कुछ मन मे है स्पष्ट क्यो नही कह देता । लोभ से विपरीत शौच या सतोष भाव है, जो इस रूप से प्रगट होता है, कि अरे क्या रखा है अधिक भाग दौड़ करने मे । जो आना होगा आ जायेगा । तथा इसी प्रकार सयम भाव, त्याग भाव, सत्य भाव, मेरा यहा कुछ नही ऐसा आकिंचन्य भाव, व ब्रह्मचर्य आदि भाव सब राग व द्वेष से विपरीत वीतरागता वैराग्य के परिणाम है । इसे ही वीतरागता, साम्यता माध्यस्थता, सरलता, सन्तोष व शाति आदि शब्दो से कहा जाता है. 1
४. श्रद्रा
क्रोधादि भावो से प्राणी थक जाता है, ऊब जाता है । पर इन वीतराग परिणामो से थकता नही, इसलिये यह चारित्र की निर्मल व्यक्ति है, क्रोधादि मलिन व्यक्तिये है । निर्मल व्यक्तियों को स्वाभाविक भाव या शुद्ध भाव या सम्यक चारित्र और मलिन व्यक्तियो - को विभाविक या अशुद्ध भाव या मिथ्या चारित्र भाव कहते है । यह शुद्ध व अशुद्ध भाव जिस एक जातीय विचारणाओ में से निकल रहे : है उसी का नाम हम चारित्र शब्द से करते है ।
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४ श्रद्धा - हित व अहित के विवेक को श्रद्धा कहते है । यह भी विचारणाओ का ही एक रूप है । "यही मेरे लिये हितकारी है, इसे ही प्राप्त करना चाहिये । यह मुझे शिघ्रातिशीघ्र कैसे मिले " ऐसी जिज्ञासा रूप से जी जीवन को उसकी प्राप्ति के प्रति प्रेरणा दे, उसे श्रद्धा कहते है । आज का यह विवेक कुछ उलटा है । धनादि की आसक्ति मे हित की श्रद्धा है और वीतरागता व त्याग में अहित की । परन्तु यह क्योकि जीवन मे चिन्ताओं का कारण बन रही है इसलिये